भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर राहुल गांधी ने मोदी सरकार को दो बार कठघरे में खड़ा किया। रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई रैली में, फिर दूसरे दिन लोकसभा में। दोनों अवसरों पर वे आत्मविश्वास से भरे दिखे और अपने भाषण में तीखे तेवर अपनाए। उनका यह अंदाज चर्चा का विषय बना तो इसके कई कारण हैं। बहुतों के मन में उनकी छवि एक अनिच्छुक राजनेता की रही है। पहले का अनुभव यही रहा कि वे अपनी पसंद या सुविधा से कोई मुद्दा उठाते हैं, फिर उसे छोड़ देते हैं। संसदीय बहसों में वे कभी-कभार ही हस्तक्षेप करते रहे हैं। कई बार, जब पार्टी के लोग नेतृत्व से स्पष्ट नजरिए की अपेक्षा करते हैं, वे खामोश रहे हैं। राहुल ऐसे समय अवकाश पर चले गए जब संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा था और बजट से लेकर भूमि अधिग्रहण तक, अनेक मुद्दों पर विपक्ष को मुखर होना था। इसलिए स्वाभाविक ही उनकी इस छुट्टी पर काफी सवाल उठे। तब पार्टी की ओर से यह सफाई दी गई कि राहुल गांधी ने कुछ दिन एकांत में रहने का निर्णय इसलिए किया है ताकि भविष्य की कार्य-योजना पर विचार कर सकें। क्या उनका नया अंदाज उनके एकांतवास की देन है? और क्या यह कायम रहेगा?

राहुल गांधी की नई सक्रियता ने इसलिए भी लोगों का ध्यान खींचा है, क्योंकि कांग्रेस में इस बात को लेकर मंथन चल रहा है कि क्या उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद सौंपने का समय आ गया है। सोमवार को लोकसभा में बोलते हुए राहुल ने मोदी सरकार पर ठीक उस जगह निशाना साधा, जहां वह पहले से ही बचाव की मुद्रा में है। उन्होंने कहा कि इस सरकार को केवल उद्योगपतियों के हितों की चिंता है और यूपीए सरकार के समय बने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के उसके इरादे का यही सबब है। उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री को भी निशाने पर लिया। भाजपा ने भी जमीन लेने के ‘वडरा मॉडल’ की याद दिला कर कांग्रेस पर जवाबी हमला किया। लेकिन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध कांग्रेस तक सीमित नहीं है। दूसरे दल भी विरोध का झंडा उठाए हुए हैं, किसान संगठन शुरू से मुखालफत कर रहे हैं। कांग्रेस ने इसमें बढ़त बनाने की कोशिश की है, पहले रैली के जरिए और फिर लोकसभा में राहुल गांधी के भाषण के जरिए। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध के केंद्र में आने की कांग्रेस की कोशिश तब भी सफल रही थी, जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा था। करीब दो महीने के अवकाश के बाद राहुल गांधी की जोरदार वापसी का संदेश देने में भी वह कामयाब हुई है। पर राहुल की राह आसान नहीं है। उनके और उनकी पार्टी के सामने कई चुनौतियां हैं।

जनता परिवार की एकता के फलस्वरूप अब विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस के सामने एक प्रबल प्रतिद्वंद्वी होगा। सीताराम येचुरी के नेतृत्व में माकपा के भी पहले से अधिक मुखर और सक्रिय होने की संभावना है। विपक्ष की राजनीति में अधिक से अधिक स्थान घेरने की इस चुनौती के अलावा कांग्रेस के सामने कई अंदरूनी समस्याएं भी हैं। अनेक राज्यों में पार्टी धड़ों में बंटी हुई है। धड़ेबाजी पर अंकुश लगाने और पार्टी के सांगठनिक ढांचे को दुरुस्त करने के साथ ही एक के बाद एक चुनावी पराजयों से हताश कार्यकर्ताओं के मनोबल को वापस लाना है। रैली ने एक हद तक पार्टी में उत्साह का संचार जरूर किया है। पर यह एक प्रस्थान भर है। इसके आगे का रास्ता काफी मुश्किलों से भरा है। अगर कांग्रेस ने अपनी सांगठनिक सेहत नहीं सुधारी और विपक्ष की मुख्य पार्टी के तौर पर अपनी रणनीतिक निरंतरता नहीं दिखाई तो इस उपलब्धि पर पानी फिर सकता है।

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