प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों के सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए एक्यूआइ यानी वायु गुणवत्ता सूचकांक की शुरुआत की। देर से सही, सरकार ने दुरुस्त कदम उठाया है। दुनिया के कई देशों के प्रमुख शहरों में ऐसे सूचकांक की व्यवस्था पहले से है। हमारे देश में फिलहाल दिल्ली समेत दस शहरों में यह व्यवस्था शुरू हो रही है। पर्यावरण मंत्रालय की योजना इसे छियालीस शहरों और बाईस राज्यों की राजधानियों तक ले जाने की है जहां की आबादी दस लाख से अधिक है। एक्यूआइ के जरिए देश के दस शहरों की हवा की गुणवत्ता पर हर वक्त नजर रखी जाएगी। शहरों के निगरानी केंद्रों पर लगे डिस्प्ले बोर्ड पर हवा में प्रदूषण का स्तर हर वक्त प्रदर्शित होता रहेगा। विश्व मानकों के अनुरूप हवा की गुणवत्ता को छह श्रेणियों में सूचित किया जाएगा, और हर श्रेणी के लिए अलग रंग होगा। इस तरह सामान्य लोग भी आसानी से, बगैर आंकड़ों में उलझे, जान सकेंगे कि जिस हवा में वे सांस ले रहे हैं वह सेहत के लिए कितनी मुफीद या कितनी खतरनाक है।

इस तरह की जानकारी हर समय मिलते रहने की व्यवस्था शुरू होने से कुछ उम्मीदें की जा रही हैं। सबसे पहली बात यह कि लोगों में प्रदूषण को लेकर जागरूकता बढ़ेगी। दूसरे, प्रदूषण को रोकने के लिए सामाजिक दबाव बढ़ेगा। तीसरे, प्रदूषण की ताजातरीन सूचना लोगों को स्वास्थ्य संबंधी सावधानी बरतने के लिए प्रेरित करेगी। लेकिन ये उपलब्धियां बहुत मामूली साबित होंगी, अगर परिवहन, ऊर्जा, नगर नियोजन और औद्योगिक अनुशासन आदि के स्तर पर कोई गंभीर पहल न हो। दिल्ली की हवा में घुला जहर यहां के लोग रोज भुगतते हैं। ऐसे अध्ययन सामने आते रहते हैं जो दिल्ली में वायु प्रदूषण की वजह से लोगों की सेहत पर पड़ने वाले कुप्रभावों, सांस की बढ़ रही बीमारियों के तथ्य देते हैं। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी कहा। इन चेतावनियों से क्या फर्क पड़ा है? दिनोंदिन बिगड़ते हालात से अच्छी तरह वाकिफ होने के बावजूद केंद्र और दिल्ली सरकार ने क्या कदम उठाए हैं? प्रधानमंत्री ने वायु गुणवत्ता सूचकांक का आरंभ करते समय हमारी परंपरा में पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को रेखांकित किया। लेकिन प्रधानमंत्री से केवल यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे परंपरा की अच्छी बातों का स्मरण कराएं। सवाल यह है कि वायु प्रदूषण से निपटने या उसे कम करने की उनकी सरकार ने क्या योजना बनाई है?

दरअसल, यह एक मसला है जिस पर कोई कठोर कदम सरकारें नहीं उठाना चाहतीं, क्योंकि उन्हें डर सताता है कि बहुत-से लोगों की नाराजगी मोल लेनी पड़ेगी। लेकिन समय आ गया है कि ऐसी नाराजगी की परवाह न कर सख्त कदम उठाए जाएं। अभी तो हालत यह है कि औद्योगिक कचरे के निपटान और जल-मल शोधन के लिए जो नियम-कायदे बने हुए हैं उनका भी ठीक से पालन नहीं किया जाता। श्रम कानूनों की तरह पर्यावरण कानूनों का भी धड़ल्ले से उल्लंघन होता रहता है। विडंबना यह है कि मोदी सरकार पर्यावरण संबंधी कानूनों पर कड़ाई से अमल सुनिश्चित करने के बजाय उन्हें कमजोर करने की कवायद में जुटी है। सरकार की प्राथमिकता पर्यावरण संरक्षण नहीं, बल्कि यह है कि औद्योगिक इकाइयों को कितनी तेजी से पर्यावरणीय मंजूरी दी जाए। फिर परंपरा की दुहाई का क्या अर्थ है!

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