प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आठ दिवसीय मध्य एशिया का दौरा भारत की कूटनीतिक महत्त्वाकांक्षा का एक नया अध्याय है। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद महाशक्तियों से अपने रिश्तों को भारत नए ढंग से ढालने की कोशिश करता रहा है। पिछले कुछ बरसों में उसने आसियान यानी दक्षिण पूर्व के देशों से लगातार नजदीकी बढ़ाई है और पड़ोसी देशों से भी संबंध सुधार की कवायद चलती रही है। मगर भौगोलिक रूप से ज्यादा दूर न होते हुए भी हमारी विदेश नीति में मध्य एशिया को अपेक्षित जगह नहीं मिल पाई। मोदी की इस यात्रा से यह कमी दूर हुई है।

रूस और मध्य एशिया के पांच देशों यानी उजबेकिस्तान, कजाखस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिजस्तान और ताजिकिस्तान के इस सफर में मोदी का पहला पड़ाव उजबेकिस्तान रहा। उनके इस दौरे का एक महत्त्वपूर्ण अंग रूस के उफा शहर में शंघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स की शिखर बैठकों में भागीदारी करना भी है। इस तरह मोदी की यह यात्रा जहां मध्य एशियाई देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों के नए अध्याय का आरंभ है, वहीं इसका बहुपक्षीय आयाम भी है। उजबेकिस्तान और भारत के बीच तीन समझौते हुए जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान और पर्यटन को बढ़ावा देने से संबंधित हैं। पर अभी हुए समझौतों से सारी संभावनाओं का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, इसे तो नए आगाज की एक पृष्ठभूमि भर कहा जा सकता है।

मध्य एशिया खनिज और ऊर्जा के प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। तुर्कमेनिस्तान के पास तो गैस का दुनिया का चौथा सबसे विशाल भंडार है। लेकिन चीन और पाकिस्तान की तरफ से बनी रही भू-राजनीतिक बाधाओं के चलते मध्य एशिया तक पहुंच बनाना भारत के लिए मुश्किल रहा है। इसीलिए तापी यानी तुर्कमेनिस्तान से अफगानिस्तान और पाकिस्तान होकर भारत तक गैस पाइपलाइन बिछाने की योजना कभी सिरे नहीं चढ़ पाई। अलबत्ता ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास-कार्यों में भारत की भागीदारी उसके लिए नए रास्ते खोल सकती है। मध्य एशिया के ऊर्जा भंडारों में अमेरिका, रूस, चीन, यूरोपीय संघ यानी सभी बड़ी ताकतों की रुचि रही है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद इस क्षेत्र में अमेरिका को अपने पैर पसारने का अच्छा मौका मिला। चीन ने भी यहां काफी निवेश कर रखा है। इन सबकी बराबरी भारत भले न कर पाए, पर उसके लिए अपनी कारोबारी और कूटनीतिक पैठ बनाने के भरपूर आसार हैं। इसलिए कि मध्य एशिया के देश चीन, अमेरिका और रूस तक ही अपने विदेश व्यापार को सीमित नहीं रखना चाहते; भारत से द्विपक्षीय संबंध बढ़ाने में उन्हें अपने लिए नए अवसर दिखते हैं। इसीलिए अफगानिस्तान में तालिबान की सक्रियता और सुरक्षा के लिहाज से वहां की शोचनीय स्थिति को लेकर भारत की तरह ये देश भी चिंतित नजर आते हैं।

तापी परियोजना कभी अमल में आ पाएगी इसकी फिलहाल दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं दिखती। लेकिन यह कभी क्रियान्वित न हो पाए तब भी भारत के लिए तुर्कमेनिस्तान समेत मध्य एशियाई देशों से व्यापार बढ़ाने की भरपूर गुंजाइश है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ बढ़े तनाव के कारण रूस ने चीन से नजदीकी बढ़ाई है। लेकिन मध्य एशिया में चीन की बढ़ती गई पैठ रूस को खटकती है। चीन और अमेरिका तो एक दूसरे को लेकर सशंकित रहते ही हैं। इसलिए इन सभी को अपने-अपने कूटनीतिक कारणों के चलते मध्य एशिया से भारत का संबंध बढ़ना कोई परेशानी की बात नहीं लगेगी, बल्कि शायद वह रास ही आए। शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक के दौरान मोदी की मुलाकात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से भी होगी। शरीफ को रमजान की बधाई देते हुए मोदी पाकिस्तान से संबंध बेहतर बनाने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं। इस दिशा में कुछ हो सके तो मध्य एशिया के उनके अभियान को बल ही मिलेगा।

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