संसद विधायी कार्यों और देश के सामने खड़ी चुनौतियों और अहम मुद्दों पर बहस के लिए है। पर संसद के मानसून सत्र का चौथा दिन भी हंगामे की भेंट चढ़ गया। दोनों सदनों की कार्यवाही सोमवार तक के लिए स्थगित कर दी गई। संसद का न चलना एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कही जाएगी। सरकार और भाजपा की निगाह में इस गतिरोध के लिए पूरी तरह विपक्ष जिम्मेवार है। पर यह दिलचस्प है कि यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में, विपक्ष में रहते हुए, भाजपा का भी यही रवैया था।

तब वह संसद की कार्यवाही में बाधा डालने को यह कह कर सही ठहराती थी कि यह घोटालों की तरफ देश का ध्यान आकर्षित करने का तरीका है; भ्रष्टाचार की वजह से देश को होने वाले नुकसान के बरक्स संसदीय कामकाज का नुकसान नजरअंदाज किया जा सकता है। मगर अब वही रणनीति कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने अख्यितार की है, तो भाजपा बिफरी हुई है! विपक्ष ललित मोदी कांड की बिना पर सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे और व्यापमं घोटाले के कारण शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे की मांग पर अड़ा हुआ है। भाजपा को यह मांग कतई मंजूर नहीं है। वह बस संसद में बहस के लिए तैयार है। लेकिन यही तर्क जब यूपीए सरकार देती थी, तो वह भाजपा को स्वीकार्य नहीं होता था।

बहरहाल, पिछली लोकसभा के रिकॉर्ड का हवाला देकर गतिरोध को सही नहीं ठहराया जा सकता। संसद चलनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने इसके लिए गुरुवार को विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर अच्छी पहल की। मगर वे असल मसले पर चुप क्यों हैं? उनकी अगुआई में भाजपा ने लोकसभा चुनाव भ्रष्टाचार-विरोध के मुद्दे पर ही लड़ा था। लेकिन कई संगीन आर्थिक अपराधों के आरोपी ललित मोदी को मदद पहुंचाने के सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के कृत्य पर प्रधानमंत्री ने अभी तक मुंह नहीं खोला है।

व्यापमं घोटाले को लेकर भाजपा की दलील है कि यह राज्य से जुड़ा मामला है, इसलिए इसे संसद में घसीटने का कोई मतलब नहीं है। क्या आदर्श घोटाले को राज्य-विशेष का मामला मान कर भाजपा उस पर संसद में चुप रह गई थी? मगर ज्यादा अहम मुद््दा यह है कि जिस बात पर विपक्ष इतना उत्तेजित है और संसद का कामकाज ठप है, प्रधानमंत्री उस पर खामोश क्यों हैं? खुद कुछ कहने के बजाय उन्होंने कांग्रेस का मुंह बंद करने की तरकीब अपनाई है।

उत्तराखंड, केरल, हिमाचल प्रदेश, असम, एक के बाद एक सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के खिलाफ घपले का कोई न कोई मामला निकल आया है। भाजपा ये मामले उठाना चाहती है तो जरूर उठाए, जांच भी कराए, मगर इससे वह खुद को पाक-साफ साबित नहीं कर सकती। बल्कि इस तरह के पलटवार से यह शक और गहरा होता है कि वह आक्रामकता में ही अपना बचाव खोज रही है।

लोकसभा चुनाव के समय मोदी ‘कांग्रेस-मुक्त’ भारत की बात कर रहे थे, और अब उनकी पार्टी कांग्रेस के दाग दिखा कर अपने दाग छिपाने की कोशिश कर रही है। मोदी सरकार को अभी चौदह महीने ही हुए हैं, पर भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती से पेश आने का वादा खोखला दिखने लगा है। यह सही है कि विपक्ष कोई दूध का धुला नहीं है। पर क्या इसीलिए ललित कांड से लेकर व्यापमं तक, प्रधानमंत्री को चुप्पी साध लेनी चाहिए? फिर, उनकी जवाबदेही और देश की जनता से किए वादे का क्या होगा!

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