वित्तमंत्री अरुण जेटली की राज्यसभा के बारे में की गई टिप्पणी को लेकर स्वाभाविक ही विपक्ष ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है। जेटली ने पिछले हफ्ते कहा कि परोक्ष रूप से चुना गया उच्च सदन प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदन में पारित प्रस्तावों को अटका कर हमारे लोकतंत्र के सामने एक नई चुनौती पेश कर रहा है। यह सही है कि राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव सीधे मतदाताओं के जरिए नहीं होता, पर इसी वजह से उसे कमतर नहीं माना जा सकता, न संविधान में ऐसी व्यवस्था है। राज्यसभा की परिकल्पना ऐसे सदन के रूप में की गई जहां विभिन्न क्षेत्रों के जानकार और अनुभवी लोग मौजूद होंगे, और इसका लाभ हमारी विधायी प्रक्रिया को मिलेगा। अगर जरूरी जान पड़े तो ऊपरी सदन लोकसभा को सचेत करने का भी काम करेगा। विडंबना यह है कि जेटली खुद राज्यसभा के सदस्य हैं और इस सदन के नेता भी। फिर भी उन्हें राज्यसभा के बारे में ऐसी टिप्पणी करने में कोई संकोच नहीं हुआ। उनके अलावा मोदी सरकार के पंद्रह मंत्री राज्यसभा के सदस्य हैं। जेटली की झुंझलाहट समझी जा सकती है।
राज्यसभा में सत्तापक्ष का बहुमत नहीं है। इस कारण विधेयकों को पारित कराने में सरकार को कई बार दिक्कत पेश आती है। लेकिन क्या वे यह चाहते हैं कि राज्यसभा की भूमिका केवल हां में हां मिलाने की हो? राजीव गांधी को लोकसभा में प्रचंड बहुमत हासिल था। उस समय भी राज्यसभा ही विपक्ष के मुखर होने का मंच थी और तब भाजपा को राज्यसभा की वह भूमिका रास आती थी। मोदी सरकार जिस स्थिति का सामना कर रही है वह पहली बार उपस्थित नहीं हुई है। 1999 में वाजपेयी सरकार के समय भी राज्यसभा में सत्तापक्ष का बहुमत नहीं था, 2004 में यूपीए सरकार के समय भी यही स्थिति थी। लेकिन उन सरकारों ने राज्यसभा पर परोक्ष रूप से निर्वाचित होने का ओछा तंज कसने के बजाय विपक्ष से संवाद करने और उसका भरोसा जीतने का रुख अपनाया। संसदीय समितियों के गठन के पीछे मकसद यह रहा है कि विधेयकों का बारीकी से अध्ययन हो सके, जिसकी गुंजाइश सदन में होने वाली बहसों में बहुत बार नहीं होती। लेकिन लोकसभा में काफी सुकून महसूस कर रही भाजपा न तो विपक्ष के रुख के प्रति संवेदनशील है न विधेयकों पर विस्तृत विचार-विमर्श के तकाजे को अहमियत देना चाहती है। कई विधेयकों को संसदीय समितियों को सौंपने की मांग सरकार ने खारिज कर दी, वहीं विपक्ष की यह भी शिकायत है कि कई गैर-वित्तीय विधेयक, वित्तीय कह कर पेश किए गए।
बजट सत्र में संसद का कामकाज जितना फलप्रद रहा उतना पिछले डेढ़ दशक में कभी नहीं रहा था। फिर भी जेटली विपक्ष को कोस रहे हैं। वे यह भी याद नहीं करना चाहते कि विपक्ष में रहते हुए खुद भाजपा का व्यवहार कैसा रहा था। किराना क्षेत्र में विदेशी निवेश और बांग्लादेश के साथ सीमा समझौता आदि कई मुद्दों पर उसने विरोध का झंडा उठा रखा था, मगर सत्ता में आते ही इन पर उसका रुख बदल गया। अगर उसे यही करना था तो उसने तब संसद का समय जाया क्यों होने दिया? यूपीए सरकार के समय जब भी अध्यादेश जारी हुआ, भाजपा ने उसे संसद की अनदेखी करार दिया। लेकिन मोदी सरकार ने अपनी शुरुआत ही अध्यादेश से की। भूमि अधिग्रहण के जिस कानून का भाजपा ने समर्थन किया था उस पर पानी फेरने के लिए मोदी सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिया। विचित्र है कि इस तरह का कदम जेटली को हमारे लोकतंत्र के सामने नई चुनौती नजर नहीं आता! राज्यसभा को गैर-जिम्मेदार सदन के रूप में चित्रित करना आपत्तिजनक तो है ही, इससे सरकार को कुछ हासिल नहीं होगा।
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