करीब तीन महीने पहले जब एयरटेल कंपनी ने ‘एयरटेल जीरो’ की पहल की तो इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया था। तब इस मसले पर राय लेने के लिए दूरसंचार विभाग ने एक विशेषज्ञ समिति गठित की थी। अब उस समिति ने रिपोर्ट पेश कर दी है, पर उसमें कोई स्पष्ट समाधान नहीं है। उसमें जिस तरह स्काइप, वाट्सऐप और वाइबर जैसे इंटरनेट आधारित घरेलू कॉलों के नियमन का सुझाव दिया गया है, वह पिछले दिनों नेट-निरपेक्षता अभियान की बुनियादी मांग को नजरअंदाज करने की तरह है। चूंकि नेट-निरपेक्षता की कोई साफ परिभाषा नहीं है, इस मुद्दे पर और तीखी बहस की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता। आइटी उद्योग के संगठन नास्कॉम को आशंका है कि समिति की सिफारिशों पर अमल से निजता का हनन और इस पर निगरानी मुश्किल होगी।
शायद यही वजह है कि इस रिपोर्ट पर दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सावधानी भरी प्रतिक्रिया दी है कि जब तक इस मसले पर ट्राई यानी दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की रिपोर्ट नहीं आ जाती, उसे अंतिम नहीं माना जा सकता। गौरतलब है कि नेट-निरपेक्षता खत्म करने के प्रस्ताव अगर अमल में आए तो उपभोक्ताओं को इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए डाटा पैक लेने के बावजूद उन वेबसाइटों का उपयोग करने के बदले अलग से पैसे चुकाने पड़ेंगे या फिर बेहद धीमी गति से समझौता करना पड़ेगा। जाहिर है, यह एक तरह से उपभोक्ताओं पर अपनी मनमानी थोपना है।
सवाल है कि एक खास अवधि और डाटा के लिए रकम चुकाने के बावजूद कोई उपभोक्ता संबंधित कंपनी के रहमोकरम पर निर्भर क्यों हो जाए! इटरनेट सेवा मुहैया कराने वाली कोई कंपनी अगर डाटा पैक की कीमत वसूलती है तो उपभोक्ता के सामने केवल उसके तहत संबंधित कंपनी के हिसाब से कोई वेबसाइट देखने की बाध्यता क्यों हो?
किसी कंपनी से इंटरनेट सेवा लेने के बाद अपनी सुविधा और जरूरत वाली वेबसाइटों तक पहुंचने के लिए उपभोक्ता से अलग से पैसे वसूलने की क्या तुक है? स्वाभाविक ही इस मनमाने प्रस्ताव का बड़े पैमाने पर लोगों ने विरोध जताया और ट्राई से यह मांग की गई कि नेट-निरपेक्षता की मौजूदा स्थिति को नहीं छेड़ा जाए। दूसरी ओर, टेलीकॉम कंपनियों का कहना है कि वाइबर या वाट्सऐप जैसी नई तकनीक की वजह से इंटरनेट के जरिए बात करने और संदेश भेजने की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते उनके व्यवसाय पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। इसलिए इन सेवाओं के लिए वे अलग से पैसा वसूलना चाहती हैं। लेकिन सच यह है कि वाइबर, वाट्सऐप या स्काइप जैसी सुविधाएं इंटरनेट से ही संचालित होती हैं। अगर कोई व्यक्ति इंटरनेट के उपयोग के लिए तय दरों के हिसाब से राशि चुकाता है तो उसके बाद फिर उसे अलग-अलग वेबसाइटों के लिए उनसे अलग कीमत वसूले जाने का क्या औचित्य है?
नेट-निरपेक्षता के पक्ष में अभियान चलाने वालों का यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या इस तरह कंपनियां दोहरा मुनाफा कमाने की कोशिश नहीं कर रही हैं! अमेरिका, ब्राजील और नीदरलैंड जैसे कई देशों में जहां इंटरनेट सेवाओं पर निर्भरता भारत के मुकाबले ज्यादा है, वहां बेहतर सेवाओं के साथ नेट-निरपेक्षता निर्बाध चल रही है। लेकिन हमारे यहां इंटरनेट सेवाओं के तेजी से विस्तार के बावजूद अभी साधारण लोगों की इस तक पहुंच सीमित है। ऐसे में अगर कंपनियों ने ज्यादा मुनाफा को अपना मकसद बनाया तो उपभोक्ताओं पर उसका नकारात्मक असर पड़ना तय है।
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