छत्तीसगढ़ में एक बार फिर नक्सली कहर बरपा है। बीते शनिवार को सुकमा जिले में घात लगा कर किए गए उनके हमले ने एसटीएफ यानी विशेष कार्यबल के सात जवानों की जान ले ली। नक्सलियों ने यह हमला उस वक्त किया जब एसटीएफ का दस्ता उनकी गतिविधि की भनक पाकर जंगल में उन्हें तलाशने के अभियान में निकला हुआ था। पर वे खुद शिकार हो गए। इससे नक्सल विरोधी रणनीति पर एक बार सवालिया निशान लगा है। ऐसा लगता है कि एसटीएफ की खोजी टुकड़ी के पास अपने मकसद को सफलतापूर्वक अंजाम देने के लिहाज से पर्याप्त सुराग नहीं थे, जबकि उनकी मुहिम की पल-पल की खबर नक्सलियों को थी। यह कोई हैरत की बात नहीं है। नक्सली गुट अपनी सक्रियता वाले इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ होते हैं। स्थानीय लोगों से संपर्क भी उनके काम आता है। जबकि नक्सलियों से निपटने के लिए तैनात किए गए बलों को स्थानीय परिस्थितियों और भूगोल का अधिक पता नहीं होता। यह बात सीआरपीएफ पर ज्यादा लागू होती है। सीआरपीएफ अपनी कार्रवाई के लिए स्थानीय पुलिस पर निर्भर करता है। पर ताजा मुहिम तो एसटीएफ की थी, जिसमें आमतौर पर पुलिस के जवान होते हैं।

खोजी अभियान पर निकले एसटीएफ के करीब पचास जवान जंगल में घिर गए। हमलावरों की संख्या उनसे कई गुना अधिक थी। दो घंटे तक वे हमलावरों का मुकाबला करते रहे, पैर उखड़ने लगे तो मदद के लिए संदेश भेजा। पर उनकी सहायता के लिए कोई दूसरी टीम वक्त पर नहीं पहुंच सकी। साफ है कि यह अभियान आधी-अधूरी तैयारी के साथ शुरू किया गया था। छत्तीसगढ़ की सुकमा घाटी की गिनती ऐसे इलाकों में होती रही है जहां नक्सलियों की सर्वाधिक सक्रियता है। साढ़े चार महीने पहले सुकमा में ही माओवादियों ने उनकी खोज के अभियान पर गए सीआरपीएफ के दस्ते पर हमला बोल कर दो अफसरों और ग्यारह जवानों की जान ले ली थी। उससे पहले की भी ऐसी कई घटनाओं का हवाला दिया जा सकता है। ऐसे इलाके में खोज अभियान शुरू करने के लिए कहीं अधिक सतर्कता की जरूरत थी। मगर इस तकाजे की अनदेखी की गई। सुकमा में एसटीएफ पर किए गए हमले के चौबीस घंटे भी नहीं बीते कि नक्सलियों ने कांकेर में हमला बोल कर एक खनन परियोजना में लगे सत्रह ट्रकों को आग के हवाले कर दिया। इसके एक रोज बाद दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले में चार लोग मारे गए। राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह नक्सलियों के समर्पण के मामलों का हवाला देते हुए दावा करते रहे हैं कि नक्सली हताश हो चुके हैं और वह दिन दूर नहीं जब राज्य को नक्सल समस्या से पूरी तरह निजात मिल जाएगी। इस तरह के दावे करके या अनुमान लगा कर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।

दरअसल, नक्सली जब खुद को हताश महसूस करते हैं तब भी अपनी किसी योजना को अंजाम देने की फिराक में रहते हैं ताकि बता सकें कि वे कमजोर नहीं पड़े हैं। छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद से वहां एक हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों की जिंदगी नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ी है। सीआरपीएफ की भारी तैनाती से जो उम्मीद की गई थी वह पूरी नहीं हुई। जब भी नक्सली हिंसा की कोई घटना होती है, तो केंद्रीय गृह मंत्रालय अन्य राज्यों को भी चेतावनी जारी करता है। सुरक्षा-समीक्षा की खातिर बैठकें होती है, नक्सल विरोधी अभियान को और गति देने के लिए तैनाती बढ़ाने की बात सोची जाती है। जबकि असल समस्या कार्रवाई-बल की संख्यात्मक कमी नहीं, बल्कि रणनीतिक खामियां हैं। फिर, पुलिस की छवि लोगों का भरोसा जीतने के बजाय उन्हें डराने वाली रही है। इसका नुकसान नक्सल विरोधी अभियान को भी हुआ है। नक्सली हिंसा के मद््देनजर इस पहलू पर भी सोचना होगा।

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