यह सामान्य अनुभव है कि अगर प्रधानमंत्री, संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री या फिर दूसरे बड़े नेता किसी सरकारी विभाग के कार्यक्रम में पहुंचते हैं, तो वहां का लगभग सारा अमला अपना कामकाज छोड़ कर उस में शिरकत करने पहुंच जाता है। इस बात का ध्यान रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि इस तरह वहां किस कदर अव्यवस्था फैल सकती है, सामान्य लोगों को कितनी असुविधाएं झेलनी पड़ सकती हैं। इसी का नतीजा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बनारस यात्रा के दौरान सर सुंदरलाल अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर का उद्घाटन करने गए तो वहां के ज्यादातर डॉक्टर, नर्सें और दूसरे स्वास्थ्यकर्मी उस जलसे में शिरकत करने पहुंच गए, मरीजों की चिंता को हाशिये पर डाल दिया गया।
इसके चलते लीवर की बीमारी से जूझ रही दो महिलाओं की मौत हो गई। अब अस्पताल प्रशासन उस मामले की जांच का आदेश देकर अपनी लापरवाही पर परदा डालने की कोशिश कर रहा है। करीब हफ्ता भर पहले भी जब प्रधानमंत्री चंडीगढ़ दौरे पर गए थे तो उनका सुरक्षा घेरा इस कदर चुस्त बनाया गया कि कई लोग अस्पताल तक नहीं पहुंच पाए। इसके लिए प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रूप से माफी मांगनी पड़ी। कई बार इस बात को रेखांकित किया जा चुका है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या फिर अतिविशिष्ट की श्रेणी में शुमार दूसरे लोगों की सुरक्षा-व्यवस्था या फिर अगवानी आदि के लिए जलसे आयोजित कर नाहक परेशानियां बढ़ाने से बचने की कोशिश होनी चाहिए। मगर उस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जाता।
सत्तापक्ष के ओहदेदार नेताओं के स्वागत-सत्कार का तरीका रूढ़ हो चुका है। जिन रास्ते से इन नेताओं का काफिला गुजरना होता है, उन पर प्राय: सैकड़ों स्कूली बच्चों को घंटों कतारबद्ध खड़ा रखा जाता है। अनेक मौकों पर तीखी धूप या फिर घंटों खड़े रहने की वजह से भूख-प्यास से बेहाल इन बच्चों को बेहोश होकर गिरते भी देखा जा चुका है। लेकिन इस परिपाटी पर रोक लगाने का किसी ने नहीं सोचा। सर सुंदरलाल अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर के उद्घाटन अवसर पर वहां के सारे डॉक्टरों, नर्सों आदि को प्रधानमंत्री की अगवानी में क्यों शामिल किया गया।
अस्पतालों की सेवाएं दूसरे विभागों की तरह नहीं होतीं कि किसी कार्यक्रम की वजह से अधूरे रह गए काम को बाद में भी निपटाया जा सकता है। वहां डॉक्टरों की अनुपस्थिति मरीजों की मौत का कारण बन सकती है। बनी भी। मगर जहां सरकारी अफसरों, कर्मचारियों में कर्तव्यों की बलि चढ़ा कर सत्ता से करीबी हासिल करने की होड़ लगी हो, वहां आम लोगों की परेशानियों की किसे परवाह! इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की पहल सत्ता के शीर्ष से ही हो सकती है। पर राजनेताओं को भीड़ और चापलूसी का स्वाद इस कदर लग चुका है कि उन्हें प्रशासन के स्तर पर कर्तव्य का मूल्य शायद बेमानी लगता है। प्रशासनिक शुचिता और कर्तव्यों को महत्त्व देने वाले प्रधानमंत्री को इस मामले में कोई व्यवस्था जरूर बनानी चाहिए, जिससे सरकारी कर्मचारी नेता के सामने भीड़ का हिस्सा बनने के बजाय अपने कामकाज को ज्यादा जरूरी समझें।
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