मुख्य न्यायाधीशों के साल-दर-साल आयोजित होने वाले सम्मेलन में न्यायिक देरी का मसला अमूमन हर बार उठता रहा है। लेकिन यह पहली बार हुआ कि चिंता जताने की रस्म अदायगी से बात आगे बढ़ी। देश के प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू ने बताया कि निचली अदालतों में आपराधिक मामलों के निपटारे की समय-सीमा तय कर दी गई है, जो कि पांच साल की होगी। इसके बाद अगर मामला ऊपरी अदालत में जाएगा, तो वहां दो साल में सुनवाई पूरी कर ली जाएगी। मुकदमों के निपटारे की समय-सीमा तय करने की मांग काफी समय से उठती रही है। पर यह अव्यावहारिक कह कर खारिज कर दी जाती थी। साथ में यह हवाला भी दिया जाता था कि हमारा न्यायिक ढांचा निहायत अपर्याप्त है। जजों की संख्या कम है, तिस पर पहले से ही अदालतों पर मुकदमों का बहुत बड़ा बोझ है। ऐसे में न्यायिक कार्यवाही की समय-सीमा कैसे तय की जा सकती है? लेकिन पहली बार देश के किसी प्रधान न्यायाधीश ने फैसलों के लिए वक्त की हदबंदी तय की है।
अगर जजों की संख्या बढ़ाई जाए और अदालतों को तकनीकी दृष्टि से अधिक सक्षम बनाया जाए, तो निचली अदालतों में पांच साल के बजाय तीन साल और अपीलीय अदालत में एक साल की भी समय-सीमा तय की जा सकती है। देश में कुल लंबित मामलों की तादाद तीन करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। उच्च न्यायालयों में चौवालीस लाख मुकदमे अटके पड़े हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि हमारे देश में आबादी के अनुपात में जजों की संख्या बहुत कम है। विधि आयोग ने अपनी तमाम रिपोर्टों में कहा है कि देश में जजों की संख्या कई गुना बढ़ाई जाए।
लेकिन इस सिफारिश के अनुरूप कदम उठाना तो दूर, स्वीकृत पद भी खाली होने पर समय से नहीं भरे जाते। फिर भी सरकारें इस बात का दम भरती रहती हैं कि वे न्यायिक सुधार की राह में वित्तीय बाधा नहीं आने देंगी। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने जहां न्यायपालिका के अधिक सक्षम होने की उम्मीद जताई, वहीं यह नसीहत भी दी कि उसे धारणाओं के आधार पर फैसले देने से बचना चाहिए। उनकी इस सलाह का क्या अर्थ है? कई मामलों में, मसलन पर्यावरण से जुड़े मामलों में अदालतों ने किसी विशिष्ट कानून को नहीं, लोक-हित को ध्यान में रख कर जवाब तलब किया है, सरकारों को फटकार लगाई है और फैसले सुनाए हैं। इसी तरह सर्वोच्च अदालत ने संविधान के अनुच्छेद इक्कीस में वर्णित जीने के अधिकार के आधार पर कई फैसले दिए हैं। क्या इनके औचित्य पर सवाल उठाया जाना चाहिए?
प्रधानमंत्री ने न्यायपालिका को दूसरी सलाह यह दी है कि वह ‘पांच सितारा कार्यकर्ताओं’ से प्रभावित न हो। किन लोगों की तरफ उनका इशारा होगा? कुछ लोग जनहित याचिकाओं के जरिए सामाजिक सरोकारों की लड़ाई लड़ते हैं। उनके संघर्ष के चलते कई बड़े अपकर्म रुके हैं। वे शक और आलोचना के नहीं, प्रशंसा के पात्र हैं। इस सम्मेलन की शुरुआत एक विवाद से हुई। सर्वोच्च न्यायालय के जज कुरियन जोसेफ ने प्रधान न्यायाधीश और प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर आपत्ति जताई थी कि सम्मेलन के लिए जो तीन दिन चुने गए उसी दरम्यान गुड फ्राइडे और ईस्टर के त्योहार पड़ते हैं। कुरियन प्रधानमंत्री की तरफ से आयोजित भोज में भी शामिल नहीं हुए। उनका एतराज जायज था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधान न्यायाधीश ने उसे गंभीरता से लेने के बदले कुरियन को संस्थागत हितों की अधिक तरजीह देने की सीख दी। पर यह मामला निजी बनाम संस्थागत हितों का नहीं बल्कि एक समुदाय के सामूहिक अधिकार है। जब ऐसे आयोजन के समय दूसरे त्योहारों का ध्यान रखा जाता है, तो कुरियन की आपत्ति क्यों दरकिनार कर दी गई?
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