प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल जेपी जयंती पर यानी ग्यारह अक्तूबर को सांसद आदर्श ग्राम योजना शुरू की थी, जिसके तहत हर सांसद को एक गांव गोद लेकर 2016 तक उसे आदर्श गांव के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी दी गई। फिर 2019 तक प्रत्येक सांसद को दो-दो गांव और गोद लेने होंगे। यानी योजना के मुताबिक अगले आम चुनाव से पहले हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में तीन गांव विकास के उदाहरण बन जाएंगे। लेकिन इस उम्मीद पर पानी फिरता दिख रहा है। मोदी सरकार ने अपने पहले साल के कामों में सांसद आदर्श ग्राम योजना की भी गिनती की, पर इसकी हकीकत क्या है यह खुद ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह ने बता दी है। पिछले हफ्ते उन्होंने बताया कि एक सौ आठ सांसदों ने अब तक किसी गांव को गोद नहीं लिया है। जबकि योजना शुरू हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं। इससे समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री की इस पहल में हमारे सांसदों की कितनी दिलचस्पी है। मजे की बात यह है कि इस योजना को अब तक हाथ में न लेने वालों में विपक्ष के ही नहीं, भाजपा के भी सांसद शामिल हैं।
यों यूपीए सरकार के समय भी गांवों को गोद लेने की योजना शुरू हुई थी, अलबत्ता तब इसकी जिम्मेदारी सांसदों पर नहीं, सरकार पर थी। वर्ष 2009-10 में शुरू हुई प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के तहत गांवों को चुनने का आधार यह था कि वहां अनुसूचित जातियों की आबादी कम से कम पचास फीसद हो। यह कसौटी मायने रखती थी, क्योंकि दलित हमारे समाज के सबसे शोषित-उत्पीड़ित समुदाय रहे हैं। लेकिन इस योजना का क्रियान्वयन कैसा रहा, किसे मालूम है! प्रधानमंत्री मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत वैसी कोई सामाजिक कसौटी तो नहीं रखी, पर सांसदों को यह हिदायत जरूर दी कि वे अपना या अपने किसी रिश्तेदार का गांव न चुनें। यह मानना सही नहीं होगा कि इसी बंदिश के कारण इस योजना को लेकर हमारे सांसद उदासीन हैं। सांसद क्षेत्रीय विकास निधि का भी यही हाल है, बल्कि और बुरा है। सोलहवीं लोकसभा का गठन हुए एक साल हो चुका है। पर अधिकतर सांसदों ने इस निधि के तहत आबंटित राशि का मामूली हिस्सा ही खर्च किया है। ऐसे भी कई सांसद हैं जिन्होंने अपनी क्षेत्रीय विकास निधि का कुछ भी इस्तेमाल नहीं किया है। इनमें कुछ मंत्री और विपक्ष के दिग्गज भी शामिल हैं।
विडंबना यह है कि सांसदों की मांग पर इस निधि की राशि समय-समय पर बढ़ाई जाती रही है। वर्ष 1993-94 में आबंटन प्रति सांसद पांच लाख रुपए सालाना से शुरू हुआ था, और अब पांच करोड़ रुपए सालाना है। अगर राशि का उपयोग न हो पाने की बिना पर क्षेत्रीय विकास निधि को खत्म करने की बात उठे, तो हमारे सांसद संभवत: कुपित हो जाएंगे। पर न तो क्षेत्रीय विकास निधि के इस्तेमाल में उनकी दिलचस्पी दिखती है न सांसद आदर्श ग्राम योजना में। पर सवाल यह भी है कि जो काम सरकारी महकमों और स्थानीय निकायों के लिए तय हैं, उनमें सांसदों को क्यों पड़ना चाहिए? सांसदों का काम विधायी कार्यों में हिस्सेदारी करने, सरकारी नीतियों और फैसलों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने का है। जब नीति निर्माण में उनकी इतनी अहम भूमिका है, तो पंचायती काम का बोझ उन पर क्यों डाला जाए। दूसरा सवाल यह है कि अगर किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाली दूर करने के व्यापक प्रयास नहीं किए जाएंगे, तो एक गांव को गोद लेने से क्या फर्क पड़ेगा। हो सकता है कि इससे आसपास के अन्य गांव उपेक्षा और भेदभाव महसूस करें। ऐसी शिकायतें आ चुकी हैं। बेहतर यह होगा कि एक-दो गांवों पर अधिक संसाधन लगाने के बजाय समग्र ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाए।
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