शायद ही किसी और सरकार ने अपना एक वर्ष बीतने पर इस तरह जश्न मनाया हो। मोदी सरकार के एक साल पूरा होने पर भाजपा देश भर में दो सौ बड़ी रैलियां और पांच हजार जनसभाएं करेगी। इतने ही संवादताता सम्मेलन किए जाएंगे। एक सप्ताह तक ‘जन कल्याण पर्व’ मनाया जाएगा। मथुरा में प्रधानमंत्री की रैली के साथ इस सिलसिले की शुरुआत हो गई। इस धुआंधार प्रचार अभियान का एक खास मकसद मोदी सरकार के कॉरपोरेट-हितैषी और गरीब-विरोधी होने के आरोप का जवाब देना है। लेकिन भाजपा को सोचना चाहिए कि ऐसी धारणा बनी कैसे? क्या यह विपक्ष का प्रचार मात्र है, जिसकी काट जवाबी प्रचार से की जा सकती है, या बात कुछ और भी है? सरकार खुद कॉरपोरेट जगत की अपेक्षाओं का खयाल रखने का संदेश देने के लिए उतावली रही है। भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश इसीलिए लाया गया। यह कोई आपातकालीन मसला नहीं था, जिसके लिए अध्यादेश लाना सही माना जाए। लेकिन इस हड़बड़ी में निहित प्रयोजन साफ था, यह जताना कि मोदी बाजार-केंद्रित विकास के रास्ते की सारी बाधाएं दूर करने के लिए कटिबद्ध हैं।

तमाम प्रचार अभियान के बावजूद भाजपा इस सवाल का कोई जवाब नहीं दे सकी है कि अगर अध्यादेश सही है, तो 2013 में बने कानून का समर्थन उसने क्यों किया था? सरकार ने अपने एक साल के रिपोर्ट कार्ड में सबसे ज्यादा उपलब्धियां आर्थिक मोर्चे पर गिनाई हैं। इसमें दो राय नहीं कि यूपीए सरकार के अंतिम दिनों में छाई रही निराशा छंटी है। विकास दर का ग्राफ चढ़ा है। कोयले की नीलामी की प्रक्रिया शुरू हुई और उसमें पारदर्शिता आई। साल भर में कुल मिला कर शेयर बाजार में तेजी बनी रही है। और इससे भी अहम बात यह कि राजकोषीय घाटा जीडीपी केचार फीसद तक आ गया है और यह कामयाबी उम्मीद से भी कुछ अधिक है। लेकिन यह उपलब्धि राजस्व संग्रह में वृद्धि के जरिए नहीं, बल्कि योजना-व्यय में कटौती के जरिए हासिल की गई है। पिछले वित्तवर्ष में उपभोक्ता सामान की खरीद में जबर्दस्त कमी आई है, जो कि बीते एक दशक में सबसे ज्यादा है।

आम लोगों की बचत की गुंजाइश सिकुड़ने का इससे साफ संकेत और क्या होगा? जिस एक साल का बखान करने में भाजपा पूरी ताकत से जुट गई है उसे किसानों की खुदकुशी के सिलसिले में आई तेजी के लिए भी जाना जाएगा। स्वच्छता अभियान और नमामि गंगे योजना प्रशंसनीय कदम हैं, पर यह भी जरूरी है कि पर्यावरण को लेकर समग्र नजरिया अपनाया जाए। काले धन पर एसआइटी गठित करना सरकार का पहला महत्त्वपूर्ण कदम था, हालांकि इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय का दबाव भी रहा होगा जिसने एसआइटी के लिए समय-सीमा तय कर रखी थी। मगर काले धन पर विधेयक लाने का श्रेय तो पूरी तरह सरकार को ही जाता है।

यह भी उल्लेखनीय है कि कोई बड़ा घपला फिलहाल उजागर नहीं हुआ है। लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग के खाली पद क्यों नहीं भरे गए? केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख का पद भी रिक्त है। लोकपाल के लिए यूपीए सरकार के समय ही विधेयक पारित हो गया था, पर लोकपाल संस्था का गठन अब तक नहीं हो पाया है। विसब्लोअर कानून साल भर पहले बना था मगर उसकी अधिसूचना अब तक जारी नहीं हो पाई है। एक और चिंताजनक विषय अकादमिक संस्थानों और कला-संस्कृति की संस्थाओं में सरकार की मनमानी दखलंदाजी है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, राष्ट्रीय संग्रहालय, ललित कला अकादेमी आदि में हुए मनमाने हस्तक्षेप और फेरदबदल ने उन अंदेशों को सही साबित किया है जो मोदी सरकार के आने के समय से ही जताए जा रहे थे। लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव नहीं होता, यह भी होता है कि संस्थाओं की स्वायत्तता बनी रहे, वे सत्ता के अतिक्रमण का शिकार न हों।

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