प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे ज्यादा सक्रियता विदेश नीति के मोर्चे पर दिखाई है। सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में उनके शपथ ग्रहण के साथ ही इसकी शुरुआत हो गई थी। उनकी सरकार को एक साल होने जा रहा है। इस दौरान चीन से पहले उन्होंने अमेरिका, जापान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया आदि अनेक बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों की यात्रा की थी। इन सभी यात्राओं में व्यापार और निवेश बढ़ाना उनकी प्राथमिकता रही। उनकी चीन यात्रा भी इसी सिलसिले की ताजा कड़ी है। यों मोदी के पदभार संभालने के बाद दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते और मजबूत करने की कवायद पिछले साल सितंबर में ही शुरू हो गई थी, जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए थे। तब शी ने भारत में पांच साल में बीस अरब डॉलर के निवेश का वादा किया था। मोदी की चीन यात्रा का भी सबसे खास आयाम व्यापारिक है, जिसका प्रमाण दोनों देशों के बीच हुए छोटे-बड़े चौबीस समझौते हैं। हालांकि चीनी नेताओं से मोदी की बातचीत आतंकवाद, जलवायु संकट, पश्चिम एशिया में अस्थिरता जैसे मसलों पर भी हुई, और मोदी ने अपने दो भाषणों में गरीबी खत्म करने और सामाजिक सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही, मगर अमूमन ऐसी बातें कूटनीतिक चलन का हिस्सा होती हैं।
महाराष्ट्र, गुजरात और रेलवे के विकास से जुड़े कई समझौते हुए हैं। एक समझौते के मुताबिक जून से नाथुला के रास्ते कैलाश मानसरोवर का रास्ता खुल जाएगा। कई समझौतों में स्पष्टता की कमी है। दोनों देशों के बीच जब भी शीर्ष स्तर पर संवाद होता है, तो स्वाभाविक ही लोगों की दिलचस्पी का एक खास विषय यह रहता है कि क्या सीमा विवाद के स्थायी हल की दिशा में कोई प्रगति हो पाएगी। इस मामले में निराशा ही हाथ लगी है। विडंबना तो यह है कि जिस समय मोदी और शी सीमा-विवाद पर चर्चा कर रहे थे उसी समय चीन के सरकारी टीवी चैनल ने भारत का आपत्तिजनक नक्शा दिखा कर विवाद खड़ा कर दिया। इसमें कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश को भारत के नक्शे में नहीं दिखाया गया था। ऐसा ही नागवार गुजरने वाला व्यवहार चीन ने तब भी किया था जब शी भारत आए थे। एक तरफ मोदी अमदाबाद में शी की अगवानी में जुटे थे और दूसरी तरफ चीनी सैनिक लद््दाख में अतिक्रमण कर रहे थे। अब कहा जा रहा है कि चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने का भरोसा दिलाया है। पर चीन पहले भी कई बार ऐसे आश्वासन देकर उन्हें पलीता लगा चुका है। चीन से सीमा विवाद के स्थायी समाधान के तकाजे को स्थगित कर सारा जोर आपसी व्यापार बढ़ाने पर है।
दोनों पक्षों के बीच व्यापार तो खूब बढ़ा है, पर इसी के साथ भारत का व्यापार घाटा भी बढ़ता गया है। जब भी इस असंतुलन को दूर करने की बात उठती है, चीन गोलमोल आश्वासन देकर इस मसले को टाल देता है। खासकर सूचना प्रौद्योगिकी और दवा उद्योग में अग्रणी भारतीय कंपनियां चीन में व्यापार-पहुंच में आने वाली रुकावटों का रोना रोती रहती हैं, पर उनकी शिकायतें दूर करने के लिए चीन संजीदा नहीं दिखता। मोदी की चीन यात्रा को ध्यान में रख कर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दलाई लामा से होने वाली मुलाकात टाल दी, और भारत-अमेरिका मालाबार संयुक्त नौसैनिक युद्धाभ्यास से जापान को अलग रखने का फैसला किया गया। इन दो वाकयों से अच्छा संदेश नहीं गया है। ऐसे समय जब भारत अमेरिका से अपने रिश्ते को नए ढर्रे पर ढाल रहा है और जापान से नजदीकी बढ़ा रहा है, उसे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे चीन के दबाव में आने का संकेत जाए। चीन से व्यापार और निवेश का संबंध बढ़े, इसमें कोई हर्ज नहीं, पर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह इसका एकमात्र विकल्प नहीं है।
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