दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर पैदा हुआ टकराव बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इस रस्साकशी से अधिकारियों के बीच विचित्र स्थिति पैदा हो गई है, आखिर वे किसका निर्देश मानें! गौरतलब है कि पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव ने सभी विभागों को पत्र लिख कर कहा था कि दिल्ली विधानसभा को सौंपे गए विषयों से संबंधित फाइलें उपराज्यपाल के पास भेजना जरूरी नहीं है। इस निर्देश को सही ठहराने के लिए पत्र में संविधान के अनुच्छेद 239 एए का हवाला भी दिया गया था।

लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय का यह कदम उपराज्यपाल नजीब जंग को रास नहीं आया। उन्होंने दिल्ली सरकार के सभी अधिकारियों को सख्त निर्देश जारी किया है कि वे पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री की तरफ से दिए गए आदेश को न मानें, सभी फाइलें उपराज्यपाल के कार्यालय को भेजी जाएं, विधानसभा के विषयों से ताल्लुक रखने वाली फाइलें भी। यह फरमान जारी करने के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम,1991 और कार्यप्रणाली संबंधी नियम 1993 की तरफ दिल्ली सरकार का ध्यान खींचा है, जिनमें मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के कार्यालयों के संबंधों को परिभाषित किया गया है।

जंग ने यह भी कहा है कि मंत्रिपरिषद की भूमिका उपराज्यपाल को सरकार चलाने में सलाह देने और विचार-विमर्श तक सीमित है। उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह और विचार-विमर्श के बगैर भी फैसले करने को स्वतंत्र हैं। शायद ही पहले किसी उपराज्यपाल ने मुख्यमंत्री से ऊपर अपनी सत्ता प्रमाणित करने की ऐसी बेचैनी दिखाई हो। दूसरी ओर यह भी सच है कि किसी और मुख्यमंत्री ने उपराज्यपाल की सत्ता को ऐसी चुनौती नहीं दी थी। सरकार बनाने के ग्यारह रोज बाद ही केजरीवाल ने जंग को पत्र लिख कर कहा था कि पुलिस और भूमि संबंधी मामलों की फाइलें उन्हें मुख्यमंत्री कार्यालय को भेजनी चाहिए। क्या यह लड़ाई अहं की है?

जो हो, इस टकराव ने दिल्ली सरकार की अजीब स्थिति को एक बार फिर रेखांकित किया है। उससे लोग कितनी भी अपेक्षाएं करते हों, पर पुलिस और भूमि संबंधी विभाग उसके नियंत्रण में नहीं हैं। इन्हें दिल्ली सरकार के अधीन लाने यानी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की वकालत भाजपा भी करती आई है, लंबे समय तक यह उसका एक मुख्य चुनावी मुद्दा था। मगर वाजपेयी सरकार के समय जब संसद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का विधेयक आया तो उसमें ये दोनों विभाग छोड़ दिए गए। अलबत्ता लोकसभा भंग हो जाने की वजह से वह विधेयक भी जहां का तहां रह गया। मोदी के जमाने में तो भाजपा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के मुद्दे को ही भूल गई है।

बहरहाल, जब तक दिल्ली के पूर्ण राज्य न होने की स्थिति बरकरार है, मुख्यमंत्री उन विभागों पर हुक्म नहीं चला सकते, जिन्हें उपराज्यपाल के जरिए केंद्रीय गृह मंत्रालय निर्देशित करता है। मुख्यमंत्री यह भी नहीं कह सकते कि फाइलें उपराज्यपाल को न भेजी जाएं। मगर उपराज्यपाल को भी अपनी मर्यादा समझनी चाहिए। जंग ने जिस तरह अपनी सत्ता की सर्वोच्चता का इजहार किया है, वह केवल उनकी मंशा है, या इसके पीछे केंद्र की शह भी है?

जो हो, निर्वाचित सरकार से ऊपर अपनी सत्ता मनवाने की जिद गैर-लोकतांत्रिक ही कही जाएगी। राष्ट्रपति जब संसद में अभिभाषण करते हैं, तो ‘मेरी सरकार’ कह कर उसकी कार्य-योजना बताते हैं। तमाम राज्यपाल भी सदन के अपने संबोधन में यही करते हैं। पर कार्यकारी शक्तियां निर्वाचित सरकार के ही अधीन होती हैं। संवैधानिक प्रावधानों में इस्तेमाल किए शब्दों की इस तरह से व्याख्या नहीं की जा सकती कि नौकरशाहों की ही मर्जी चले और जनप्रतिनिधित्व और जन-आकांक्षा गौण हो जाए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे प्रावधानों का आशय संसदीय परिपाटी को नजरअंदाज करके नहीं किया जा सकता।

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