मालेगांव विस्फोट मामले की विशेष सरकारी वकील रोहिणी सालियन के आरोप ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी और सरकार को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। सालियन ने पिछले दिनों एक अंगरेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा कि नई सरकार आने के बाद से मालेगांव मामले में आरोपियों के प्रति नरम रुख अख्तियार करने के लिए उन पर दबाव पड़ता रहा है। अगर ऐसा होगा, तो हमारी न्याय प्रणाली में लोगों का भरोसा कैसे बना रह सकेगा?

इसलिए स्वाभाविक ही सालियन के खुलासे पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है और सरकार के रवैए पर सवाल उठे हैं। दूसरी ओर, एनआइए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने आरोप को गलत बताया है। अपनी सफाई में उसने कहा है कि एजेंसी की तरफ से ऐसा कोई दबाव सालियन पर नहीं था, न इस सिलसिले में एजेंसी के किसी अधिकारी ने उनसेकभी बात की थी। पर सालियन का कहना है कि पिछले साल, जब नई सरकार को आए करीब एक महीना हुआ था, एजेंसी के एक अधिकारी ने उनसे मुलाकात कर कहा था कि आरोपियों के प्रति नरमी बरतने और जांच को धीमा करने के लिए ‘बहुत ऊपर से निर्देश’ मिला है। पखवाड़े भर पहले उनसे एक अधिकारी ने मिल कर मामले की पैरवी करने का संदेश दिया था।

एनआइए के स्पष्टीकरण के बावजूद आरोप में गंभीरता इसलिए भी नजर आ रही है कि यह आतंकवाद की बाबत भाजपा के रवैए से मेल खाता है। वर्ष 2008 में हुए मालेगांव विस्फोट में चार लोग मारे गए थे। इससे पहले आतंकवाद की घटनाओं को एक विशेष धर्म से जोड़ कर देखा जाता था; पुलिस और जांच एजेंसियां कई बार सिर्फ शक की बिना पर या महज खानापूरी करने के लिए मुसलिम नौजवानों को पकड़ लेती थीं। आरोपी बनाए गए ऐसे बहुत-से लोग अदालतों से बरी हो गए, किसी-किसी मामले में पुलिस की अदालत की फटकार भी सुननी पड़ी।

मालेगांव मामले की जांच महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते को सौंपी गई, जिसकी कमान हेमंत करकरे के हाथ में थी, जो 26 नवंबर 2008 की घटना में आतंकवादियों का मुकाबला करते हुए शहीद हो गए। करकरे के अनुरोध पर ही मालेगांव मामले में विशेष लोक अभियोजक की जिम्मेदारी संभालने के लिए सालियन तैयार हुई थीं। जांच आगे बढ़ी तो पता चला कि इस कांड के पीछे इंदौर के एक चरमपंथी हिंदू संगठन का हाथ था। उससे दो साल पहले भी मालेगांव, फिर उसके अगले साल अजमेर शरीफ, हैदराबाद की मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस में धमाके हुए और उनके पीछे भी वैसे ही लोगों का हाथ सामने आया।

सालियन का पेशेवर रिकॉर्ड बताता है कि वे बहुत साहसी वकील रही हैं, कई ऐसे मामलों में भी उन्होंने सरकारी वकील का काम किया जिनमें आरोपी कुख्यात माफिया थे। न्याय प्रक्रिया के तकाजों के प्रति उनकी गहरी निष्ठा रही है। अब संभावना यही है कि मालेगांव मामले में उनकी जगह कोई दूसरा वकील चुना जाएगा। पर तब क्या वही पैमाना रखा जाएगा, जो करकरे के ध्यान में रहा होगा? इसकी उम्मीद बहुत कम है, क्योंकि हिंदू चरमपंथियों की लिप्तता वाले अन्य मामलों में जिन्हें अब सरकारी वकील बनाया गया है उनमें से अधिकतर के भाजपा या संघ परिवार से संबंध छिपे नहीं हैं।

छह साल पहले गठित हुई राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अपने अब तक के कार्यकाल में निष्पक्षता का परिचय दिया है। पर क्या उसकी यह साख बनी रहेगी? यह तभी संभव है जब आतंकवाद के मामलों की जांच पूर्वग्रह से ग्रसित होकर न की जाए, बल्कि सुराग और सबूत जिधर ले जाएं जांच को जाने दिया जाए। सालियन के आरोप से उठे विवाद का सबक भी यही है कि आपराधिक मामलों के सरकारी वकील ऐसे हों जो सबूतों को तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए समर्पित हों, और उनके काम में दखलंदाजी न की जाए।

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