लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव नहीं होता, यह भी होता है कि उसमें असहमति और शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार रहता है। अगर कोई सरकार विरोध के स्वरों को कुचलने की कोशिश करती है तो उसका यह व्यवहार लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट करने वाला ही कहा जाएगा। आइआइटी-मद्रास में एपीएससी यानी आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल नाम के विद्यार्थी समूह पर पाबंदी की ताजा घटना एक खतरनाक संकेत है। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार न तो अपने ऊपर उठने वाले सवालों का सामना करना चाहती है, न उसे संविधान में दर्ज लोकतांत्रिक मूल्यों की कोई परवाह है। गौरतलब है कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिख कर यह आरोप लगाया कि एपीएससी मोदी सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना कर रहा है, ‘प्रधानमंत्री और हिंदुओं के खिलाफ नफरत फैलाने’ में लगा हुआ है।

इस शिकायत के बाद मंत्रालय ने जांच कराने का दावा किया और संस्थान ने मनमाने तरीके से, एपीएससी को अपना पक्ष रखने का मौका दिए बगैर, उस पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार के कामकाज का यह कौन-सा तरीका है कि कोई अज्ञात शख्स किसी विद्यार्थी संगठन की गतिविधियों पर मनमाना आरोप लगाते हुए पत्र लिख देता है और उसके आधार पर संस्थान विद्यार्थी संगठन पर प्रतिबंध की घोषणा कर देता है? क्या इतने अहम शैक्षिक संस्थान के नियंताओं को नागरिक अधिकारों के बारे में पता नहीं होगा? दरअसल, उन्होंने जो कदम उठाया वह मंत्रालय के दबाव का ही नतीजा होगा। सरकार की नीतियों के प्रति असहमति जाहिर करने को ‘प्रधानमंत्री और हिंदुओं के खिलाफ नफरत फैलाने’ की तरह कैसे देखा जा सकता है? विडंबना यह है कि कुछ संगठन तरह-तरह के आपत्तिजनक बयान देने और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत भड़काने में मुब्तिला रहते हैं, मगर उन पर कभी पाबंदी लगाने की जरूरत सरकार को नहीं महसूस होती!

आइआइटी-मद्रास के कुछ विद्यार्थियों ने सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर परिचर्चा के एक मंच के तौर पर एपीएससी का गठन पिछले साल आंबेडकर जयंती पर किया था। यह समूह आंबेडकर-पेरियार की विचारधारा और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के मकसद से काम करता है। कुछ समय पहले इस मंच के तहत ‘आंबेडकर की प्रासंगिकता’ विषय पर द्रविड़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आरवी गोपाल ने मोदी सरकार को उद्योगपतियों के हित में काम करने वाली सरकार बताया और भूमि अधिग्रहण विधेयक, बीमा, श्रम कानूनों पर सरकारी नीतियों सहित गोमांस और ‘घर वापसी’ के मुद्दों के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों की आलोचना की थी। पर ये मुद्दे क्या केवल प्रोफेसर गोपाल ने उठाए हैं?

फिर, एपीएससी को प्रताड़ित क्यों किया जा रहा है, इसलिए कि वह कमजोर निशाना है? सोशल मीडिया पर असहमति की आवाज को दबाने के लिए धारा 66-ए का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा था, यह किसी से छिपा नहीं है। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश से ही राहत मिल सकी। पर लगता है कि अदालत के उस फैसले से सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है। जिस गोमांस के मुद्दे को हाल के दिनों में तूल दिया गया, उसकी हवा खुद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू के बयान ने निकाल दी। अब भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने गोमांस पर देशव्यापी प्रतिबंध से इनकार किया है। फिर अगर कुछ लोग सरकार या भाजपा या संघ परिवार के सोच से इत्तिफाक नहीं रखते तो इसे सहजता से लेने में क्या दिक्कत है!

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