किसी भी हादसे का सबक यह होना चाहिए कि वह भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचाव की तैयारी का आधार बने। पर रेल महकमे को शायद यह बात बेमानी लगती है। इसी का नतीजा है कि रेल हादसे की कोई खबर पुरानी नहीं पड़ती कि दूसरी घटना घट जाती है। मंगलवार की रात मध्यप्रदेश के हरदा में एक ही जगह थोड़े अंतराल पर दो रेलगाड़ियां पटरी से उतर गर्इं, जिसमें इकतीस लोग मारे गए। हादसे का कारण भारी बरसात और पानी के तेज बहाव के चलते पटरियों के नीचे मिट्टी की पकड़ कमजोर हो जाना माना जा रहा है। रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा ने इसे प्राकृतिक आपदा का परिणाम बताया। पर रेल विभाग इस तरह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता। सवाल है कि क्या किसी भी रेलवे पुल या पुलिया की जांच और निगरानी के लिए कोई तंत्र है? अगर है तो उसकी जवाबदेही कौन तय करेगा?
कायदे से इसे दुर्घटनाओं से निपटने की पूर्व तैयारी में हुई चूक या लापरवाही का नतीजा माना जाना चाहिए। किसी भी निर्माण-कार्य के दौरान सामग्री और डिजाइन के पूरी तरह दुरुस्त होने के साथ-साथ आपात स्थिति में सुरक्षात्मक उपायों का भी खयाल रखा जाता है। अचानक भारी बरसात, बाढ़ या तेज बहाव से पटरियों की सुरक्षा के उपाय भी सुनिश्चित किए जा सकते हैं। हालांकि आमतौर पर इस बात का खयाल रखा जाता है, लेकिन समय-समय पर इसकी सुरक्षा जांच की जरूरत होती है। इसी तकाजे की अनदेखी का नतीजा कई बार बड़े रेल हादसों और जानमाल के नुकसान के रूप में सामने आता है।
रेलगाड़ियों के पटरी से उतरने की एक वजह पटरियों की क्षमता के मुकाबले उन पर ज्यादा वजन ढोने वाली और तेज रफ्तार गाड़ियों का चलाया जाना भी है। सालों से ट्रेनों में सुरक्षा उपकरण और टक्कररोधी यंत्र लगाने का इरादा दोहराया जाता रहा है। मगर भारतीय रेल को इन आधुनिक संसाधनों से लैस करने की बात तो दूर, फिश प्लेट ढीली होने के चलते गाड़ियों के पटरियों से उतरने जैसी मामूली समस्या से भी पार नहीं पाया जा सका है, जो नियमित जांच और उन्हें दुरुस्त करने में लापरवाही से जुड़ी है।
तेज रफ्तार विशेष वातानुकूलित गाड़ियों की संख्या बढ़ाने या बुलेट ट्रेन चलाने के दावों के बीच शायद ही कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर की मजबूत और सौ फीसद सुरक्षित पटरियां बिछाने को प्राथमिक जरूरत माना गया। एक गंभीर समस्या ऐसे कामों के लिए जरूरी कर्मचारियों की भारी कमी भी है। जब रेलवे की सुरक्षा श्रेणी में ही एक लाख से ज्यादा पद सालों से खाली पड़े हों तो इससे अलग किसी तस्वीर की उम्मीद कैसे की जा सकती है! सरकार भारतीय रेल को विश्व मानकों के अनुरूप ढालने, सफर को सुरक्षित और आरामदेह बनाने के दावे तो खूब करती है, पर ऐसे हादसों को टालने के लिए क्या वह सचमुच संजीदा है! नुकसान हुआ है? इस तर्क को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि विज्ञापन के मद में सरकार ने जो रकम तय की है, उससे स्कूल, सार्वजनिक परिवहन और गरीबों के लिए आवास की कमी पूरी करने में काफी मदद मिल सकती है।
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