दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच कुछ दिनों से चल रहा विवाद दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। पर इसमें एक सकारात्मक संभावना भी देखी जा रही थी कि शायद इसकी परिणति निर्वाचित सरकार के पक्ष में होगी। लेकिन केंद्र के रवैए ने इस उम्मीद पर फिलहाल पानी फेर दिया है। गुरुवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जो अधिसूचना जारी की, उसे लोकतांत्रिक तकाजों के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। इस अधिसूचना के मुताबिक दिल्ली में पुलिस, भूमि संबंधी मामलों के अलावा सामान्य प्रशासन से जुड़े फैसले भी उपराज्यपाल के विवेकाधिकार का विषय हैं। वे मुख्यमंत्री से परामर्श करें या नहीं, यह उनकी मर्जी पर निर्भर है। इस अधिसूचना से एक रोज पहले उपराज्यपाल नजीब जंग ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि क्लर्क से लेकर मुख्य सचिव तक, सबकी नियुक्तियों, तबादलों और तैनाती का संवैधानिक अधिकार उन्हें हासिल है। इसी के साथ उन्होंने पिछले दिनों नियुक्तियों और तबादलों से संबंधित दिल्ली सरकार के सारे निर्णय रद्द घोषित कर दिए थे।

ताजा अधिसूचना ने उपराज्यपाल के इस रवैए पर मुहर लगाई है और मुख्यमंत्री की सत्ता को भरसक पंगु बनाने की कोशिश की है। इससे यह भी लगता है कि मुख्यमंत्री के निर्णयों को धता बताने के पीछे उपराज्यपाल को केंद्र की शह रही होगी। सवाल उठता है कि सारे प्रशासनिक फैसलों में उपराज्यपाल की ही चलेगी, तो जनादेश का क्या मतलब है? चुनी हुई सरकार के अधिकारों का क्या होगा? उसकी जवाबदेही कैसे तय की जा सकेगी? विचित्र है कि सारे अहम फैसले उपराज्यपाल के हाथ में हों, और सरकार के काम को लेकर लोग उम्मीदें निर्वाचित सरकार से करें? यह सही है कि दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों से अलग है, इसे पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है; राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम में उपराज्यपाल को प्रशासनिक प्रमुख माना गया है।

दूसरी ओर, दिल्ली सरकार की कार्यप्रणाली से जुड़ा एक प्रावधान मुख्यमंत्री की राय को अहमियत देता है। जहां अलग-अलग व्याख्या की गुंजाइश हो, वहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमेशा उसी दृष्टिकोण को वांछित माना जाता है जो चुनी हुई सरकार के पक्ष में हो। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई फैसलों ने भी इसी नजरिए पर मुहर लगाई है। अगर दिल्ली में भाजपा का मुख्यमंत्री होता, क्या तब भी उसका रवैया यही रहता? तब भाजपा लोकतंत्र की दुहाई देते हुए मुख्यमंत्री के अधिकारों की तरफदारी करती नजर आती। जब केंद्र और दिल्ली में एक ही पार्टी की सरकारें रहीं, शायद ही कभी मुख्यमंत्री को अफसरों की नियुक्ति, तैनाती और तबादले में उपराज्यपाल का मोहताज होना पड़ा हो।

जाहिर है, मुख्यमंत्री को लाचार साबित करने के प्रयासों के पीछे सियासी कारण ही अधिक हैं। विधानसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त खा चुकी भाजपा उपराज्यपाल के जरिए दिल्ली पर राज करना चाहती है। भाजपा ने ही दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग शुरू की थी। अब लोकसभा में उसका बहुमत है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संसद में विधेयक लाने का इससे अच्छा मौका और क्या होगा! लेकिन भाजपा ने दिल्ली के अपने सबसे प्रिय मुद््दे को भुला दिया है। यही नहीं, वह मुख्यमंत्री के पर कतरे जाने की वकालत कर रही है। केजरीवाल की राजनीति या उनकी कार्यशैली से बहुत लोग सहमत नहीं हो सकते हैं। पर यहां मसला केजरीवाल को पसंद या नापसंद करने का नहीं, बल्कि प्रचंड बहुमत से चुनी हुई सरकार के अधिकारों का है। दिल्ली की विशेष स्थिति में मुख्यमंत्री की कुछ सीमाएं हो सकती हैं। पर ऐसी व्यवस्था घोर अलोकतांत्रिक ही कही जाएगी कि अधिकारियों की नियुक्ति, तैनाती और तबादले में मुख्यमंत्री की राय का कोई मतलब न हो और उपराज्यपाल सर्वेसर्वा हों।

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