आखिरकार उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त का पद खाली रहने की वजह से राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार सुननी पड़ी। लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा का कार्यकाल पिछले साल मार्च में ही समाप्त हो गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने छह महीने के भीतर नए लोकायुक्त की नियुक्ति का आदेश दिया था। पर यह अवधि भी यों ही बीत गई। राज्य सरकार के इस रवैए पर नाराजगी जताते हुए सर्वोच्च अदालत ने एक माह के भीतर नए लोकायुक्त की नियुक्ति का आदेश दिया है। इस तरह की आनाकानी का यह अकेला मामला नहीं है। लोकायुक्त का कार्यकाल पूरा होने पर उनके उत्तराधिकारी के चयन में विलंब आम बात है।

नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में लोकायुक्त संस्था के साथ राज्य सरकार का मनमाना सलूक इसका और भी चुभता उदाहरण है, जहां यह पद सात साल तक खाली रहा था। अगर बरसों-बरस लोकायुक्त का पद रिक्त रहे, तो इसके पीछे भ्रष्टाचार की बहुत सारी शिकायतों की जांच न होने देने की मंशा ही जाहिर होती है। नियुक्ति में देरी के अलावा लोकायुक्त संस्था के नियम-कायदे अपनी मर्जी से तय करने की तरकीब भी राज्य सरकारें आजमाती रही हैं। गुजरात सरकार और तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल के बीच चले लंबे विवाद के मूल में यही बात थी।

कई राज्यों में लोकायुक्त का पद ही नहीं है। कई राज्यों में यह पद खाली है, जिसमें दिल्ली भी शामिल है जहां भ्रष्टाचार मिटाने के वादे पर आई आम आदमी पार्टी की सरकार है। जब भी यह मुद््दा उठता है, ‘आप’ सरकार की दलील होती है कि वह जनलोकपाल या लोकायुक्त से संबंधित नया विधेयक लाएगी। लेकिन जो केजरीवाल अपने उनचास दिन के पहले कार्यकाल में इस मामले में हड़बड़ी में दिखते थे, अब ढीले क्यों हैं! देखना है कि दिल्ली में लोकायुक्त के लिए वे कैसा विधेयक लाते हैं। यह बात इसलिए मायने रखती है क्योंकि आम आदमी पार्टी लोकपाल आंदोलन से निकली है। दूसरे, कर्नाटक को छोड़ दें, तो तमाम राज्यों में लोकायुक्त को बहुत कम अधिकार प्राप्त हैं। उनके संसाधन भी बहुत सीमित हैं। आरोपों की जांच के लिए उन्हें संबंधित राज्य सरकार का मुंह जोहना पड़ता है। उनकी भूमिका सिफारिशी होकर रह गई है।

उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा करीब नौ साल तक इस पद पर रहे, जो कि देश में किसी भी लोकायुक्त का अब तक का सबसे लंबा कार्यकाल है। पर यह राज्य सरकार की मेहरबानी के चलते संभव हुआ। उनकी नियुक्ति मुख्यमंत्री रहते मुलायम सिंह यादव ने 2006 में की थी। उनका कार्यकाल सोलह मार्च 2012 को समाप्त होना था, पर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के दूसरे ही रोज अखिलेश यादव ने एक अध्यादेश लाकर उनका सेवा-काल दो साल बढ़ा दिया।

यों मेहरोत्रा का कार्यकाल काफी सक्रियता भरा रहा, तीन साल से भी कम अरसे में उनकी जांच के चलते ग्यारह मंत्रियों को पद छोड़ना पड़ा। लेकिन सपा सरकार ने उनका कार्यकाल बढ़ाने की उदारता क्या इसलिए दिखाई क्योंकि उनकी जांच की गाज मुख्य रूप से बसपा पर गिरी थी? जो हो, अगर सपा सरकार को लोकायुक्त संस्था की सक्रियता रास आ रही थी, तो उसने न्यायमूर्ति मेहरोत्रा के उत्तराधिकारी के चयन में देरी क्यों की? केंद्र का हाल यह है कि कानून बन जाने के साल भर से ज्यादा वक्त बीत जाने पर भी लोकपाल संस्था का गठन नहीं हो पाया है।

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