भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनावों में भ्रष्टाचार और काले धन के अलावा महंगाई को भी बड़ा मुद््दा बनाया था। इसका उसे लाभ भी मिला। मोदी सरकार ने अपना एक साल पूरा होने पर जिन उपलब्धियों के दावे किए उनमें एक यह भी है कि इस बीच महंगाई काबू में रही। लेकिन मुद्रास्फीति कम होने की प्रमुख वजह आंतरिक नहीं बल्कि बाहरी यानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में आई गिरावट रही है। पर सरकार का एक साल पूरा होते ही महंगाई फिर से दस्तक देने लगी है।
वित्तमंत्री ने सेवा-कर में बढ़ोतरी का जो प्रस्ताव बजट में किया था वह एक जून से लागू हो गया है। इससे समझा जा सकता है कि बजट को जैसा खुशनुमा बताया गया वैसा नहीं था। पहले सेवा-कर बारह फीसद था, शिक्षा उप-कर को मिला कर यह 12.36 फीसद बैठता था। अब यह चौदह फीसद हो गया है। एक छोटी-सी नकारात्मक सूची को छोड़ कर सेवा-कर सभी सेवाओं पर लगता है। इसलिए इस वृद्धि की चुभन तमाम उपभोक्ताओं को महसूस होगी। रेस्तरां में खाने-पीने, ब्यूटी पार्लर जाने, ट्रेन के वातानुकूलित सफर या हवाई यात्रा से आम लोगों का वास्ता भले न हो, सेवा-कर के दायरे में फोन और दवा पर आने वाले खर्च भी शामिल हैं। फिर इस बढ़ोतरी के फलस्वरूप मालभाड़ा भी बढ़ेगा और इसका असर बहुत सारी चीजों की कीमतों पर दिखेगा।
यह बढ़ोतरी इस तर्क पर की गई है कि अगले साल अप्रैल से जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा-कर को सुगमता से लागू किया जा सके। पर यह दलील विचित्र लगती है। यह सपना दिखाया गया कि जीएसटी के लागू होने पर महंगाई नियंत्रण में रहेगी। लेकिन कैसी विडंबना है कि कीमतें बढ़ाने का रास्ता साफ करके ही जीएसटी की तैयारी की जा रही है! जीएसटी विधेयक लोकसभा में पारित हो चुका है। मगर अभी इस पर राज्यसभा की एक समिति को विचार करना है। समिति की सिफारिशें आने से पहले ही संभावित जीएसटी से समायोजन के नाम पर कर बढ़ाने का क्या औचित्य है? केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से जारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले वित्तवर्ष में जीडीपी वृद्धि दर 7.3 फीसद रही और इसमें मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र का सबसे अहम योगदान रहा।
विनिर्माण या मैन्युफैक्चरिंग की वृद्धि दर 7.9 फीसद रही तो सेवा क्षेत्र की 10.7 फीसद। जब किसी क्षेत्र की वृद्धि होती है तो कर-आधार भी उसी अनुपात में बढ़ता है। लेकिन यह आधार बढ़ने के बावजूद उपभोक्ताओं को राहत मिलना तो दूर, उलटे उन्हें अपनी जेब और ढीली करनी पड़ेगी। कई बार कर-बढ़ोतरी के पीछे राजकोषीय घाटे की दलील दी जाती रही है। लेकिन सेवा-कर में वृद्धि ऐसे समय की गई है जब राजकोषीय घाटे में कमी के आंकड़े पहले ही आ चुके थे।
यूपीए सरकार के समय सेवा-कर में शिक्षा-उप कर जोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। यह कायम है, पर दूसरी तरफ मोदी सरकार ने सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के मद में अपने पहले बरस में पौने दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की कटौती कर दी। जब मनरेगा से लेकर राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और कुपोषण निवारण कार्यक्रमों तक आबंटन घटाने में सरकार को कोई हिचक नहीं है, तो सवाल है कि करों में बढ़ोतरी का उपयोग किस दिशा में किया जाएगा? पिछले हफ्ते जारी हुए विकास दर के आंकड़ों पर अनेक विशेषज्ञों ने संदेह जताया है, क्योंकि जीडीपी का आकलन अब आधार वर्ष बदल कर किया जा रहा है। दाल की कीमतें एक साल में पचास फीसद से ज्यादा बढ़ी हैं। हाल में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े और दूध के दाम में एक बार फिर बढ़ोतरी हुई है। जीडीपी की तरह महंगाई के भी सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठें, तो हैरत की बात नहीं होगी।
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