भारत में रेलवे सार्वजनिक परिवहन का सबसे बड़ा जरिया है। लेकिन इस विशालता के बरक्स इसका कामकाज संतोषजनक नहीं रहा है। मुसाफिरों की सुरक्षा और अन्य सुविधाओं के कोण से तो इसकी आलोचना होती ही रही है, व्यावसायिक नजरिए से भी सवाल उठते रहे हैं। यों रेलवे को विश्वस्तरीय बनाने का जुमला पहले के रेल बजटों में भी दिखाई देता था। पर इस वक्त रेलवे में बड़े बदलाव की जैसी चर्चा है वैसी पहले नहीं सुनी जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार रेलवे की तस्वीर बदलने के संकेत दिए हैं। रेल मंत्रालय की कमान सुरेश प्रभु के हाथ में आने के बाद से तो यह चर्चा जोर पकड़ चुकी है। आखिर रेलवे को वे किधर ले जाना चाहते हैं? सचमुच रेलवे का ऐसा कायाकल्प होगा जिसका देश को बरसों से इंतजार है, या संभावित बदलाव बस बाजार के हितों को साधने की कवायद साबित होगा? इसे समझने का एक आधार बिबेक देबरॉय समिति की अंतरिम रिपोर्ट है। इस समिति का गठन सरकार ने पिछले साल सितंबर में किया था। समिति का कार्यकाल अगस्त में पूरा होगा और संभवत: अंतिम रिपोर्ट तभी आएगी।
समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में रेलवे को दो निकायों में बांटने का सुझाव दिया है। एक निकाय रेलवे के मूलभूत ढांचे की देखभाल करेगा। दूसरे निकाय पर रेलवे की परिचालन संबंधी जिम्मेदारियां होंगी। जिस निकाय के पास रेलवे के बुनियादी ढांचे का स्वामित्व होगा, भविष्य में उसका विनिवेश किया जा सकता है। रेलवे की उत्पादन इकाइयों में या तो निजी क्षेत्र को प्रवेश मिलेगा या इन सभी इकाइयों को विनिर्माण के सार्वजनिक उपक्रम में तब्दील कर दिया जाएगा और बाद में उसका विनिवेश भी हो सकता है। जिस तरह सरकार कई बड़े सरकारी बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर बेच रही है वही तरकीब वह रेलवे में भी अपना सकती है। कई सेवाओं को सीधे निजी क्षेत्र में देने की वकालत की गई है। समिति ने कहा है कि रेलवे को स्कूल, अस्पताल चलाने और सुरक्षा बल रखने की क्या जरूरत है! प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा, इस बारे में जताई जा रही आशंकाएं बेबुनियाद हैं। पर देबरॉय समिति की अंतरिम रिपोर्ट प्रधानमंत्री के आश्वासन को पुष्ट नहीं करती। इससे यही लगता है कि निजीकरण न करने का आश्वासन संभावित विरोध को कुंद करने की ही एक कोशिश है। यों टुकड़ों में निजीकरण का तरीका रेलवे पहले ही अपना चुका है।
पैलेस ऑन वील्स जैसी रेलगाड़ियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी है। स्पेशल फ्रेट ट्रेन ऑपरेटर और ऑटोमोबाइल फ्रेट ट्रेन ऑपरेटर नाम से माल ढुलाई के मामले में भी निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे 2010 में ही खुल गए थे। मोदी सरकार ने कई और विभागों को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है। रेलवे की एक बड़ी समस्या आय और व्यय की विसंगति रही है। उसे अपने खर्चे घटाने और आमदनी बढ़ाने की जरूरत है। लक्ष्य से पीछे चलने वाली केंद्र सरकार की परियोजनाओं में सबसे ज्यादा रेलवे की हैं। इससे लागत बढ़ती जाती है और इसकी कीमत आखिरकार मुसाफिरों को चुकानी पड़ती है। समिति ने कार्यकुशलता के तर्क से रेलवे के कई विभागों के दरवाजे बाजार के लिए खोलने की वकालत है, मगर संबंधित सेवाएं किस कीमत पर मुहैया होंगी इस पर चुप्पी साधे रखी है।
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