भारतीय जनता पार्टी गुजरात को सुशासन और विकास का आदर्श बताते नहीं थकती। जाहिर है, इसमें नरेंद्र मोदी की प्रशंसा निहित रही है, क्योंकि प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें अभी दस महीने ही हुए हैं; इसके पहले एक दशक से कुछ ज्यादा समय वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। मोदी खुद गुजरात मॉडल का बखान करते हुए अपनी पीठ थपथपाते रहे हैं। उन्हें एक के बाद एक चुनावी सफलता मिलती गई तो गुजरात मॉडल का सिक्का भी जम गया। लेकिन बहुत सारे तथ्य इससे उलट पड़ते हैं। कैग यानी नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक की रिपोर्टों ने समय-समय पर गुजरात मॉडल की असलियत बयान की है। एक बार फिर कैग की रिपोर्टों ने राज्य में सुशासन की हकीकत सामने रखी है। ऐसी पांच रिपोर्टें पिछले हफ्ते गुजरात विधानसभा में पेश की गर्इं।
ये रिपोर्टें बताती हैं कि गुजरात मॉडल में झोल ही झोल हैं। कृषि से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, लिंगानुपात, वित्तीय अनुशासन तक लगभग सभी मोर्चों पर कैग ने खामियां गिनाई हैं। कैग के मुताबिक बारहवीं पंचवर्षीय योजना के पहले साल में राज्य में कृषि की विकास दर ऋणात्मक रही, और मामूली रूप से नहीं, बल्कि करीब सात फीसद की ऋणात्मक। जबकि इससे पहले ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान राज्य ने कृषि के क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा विकास दर दर्ज की थी। गुजरात अधिक राजस्व संग्रह वाला राज्य होने का दम भरता रहा है। पर कैग ने अपनी पड़ताल में पाया है कि ये दावे अतिरंजित हैं। यही नहीं, रिपोर्ट के मुताबिक 2009-10 में गुजरात का राजकोषीय घाटा 15,153 करोड़ का था, जो कि बढ़ कर 2013-14 में 18,422 करोड़ हो गया। राज्य के बहत्तर सार्वजनिक उपक्रमों में से बीस घाटे में चल रहे हैं।
अब जरा सामाजिक क्षेत्र पर नजर डालें। 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य में बालकों की तुलना में बालिकाओं की संख्या में कमी आई, जबकि 2001 के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर पर सुधार दर्ज हुआ। एक तरफ मोदी बेटी बचाओ का नारा देते हैं, और दूसरी ओर, खुद उनके गृहराज्य की बाबत कैग ने यह टिप्पणी की है कि सरकार ने भ्रूण परीक्षण और कन्याभ्रूण हत्या रोकने के लिए सख्त कदम नहीं उठाए हैं। कैग ने बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोतरी का तथ्य भी दर्ज किया है; 2013 में, उससे पहले के साल के मुकाबले, बलात्कार के मामलों में छिहत्तर फीसद की बढ़ोतरी हुई। राज्य के चौंसठ सरकारी स्कूलों में, जहां कुल पांच हजार से ज्यादा विद्यार्थी हैं, एक भी शिक्षक नहीं है, वहीं 874 सरकारी स्कूल केवल एक-एक शिक्षक से काम चला रहे हैं।
पांच आदिवासी बहुल जिलों में आदिवासी कल्याण के लिए आबंटित धनराशि का काफी हिस्सा दूसरे मदों में लगा दिया गया। इन जिलों के बहुत सारे स्कूलों में न तो सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या के अनुपात में शिक्षक हैं न भवन समेत बुनियादी सुविधाएं। ये सारी कमियां दस महीनों की देन नहीं हैं, बल्कि मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी के कार्यकाल की तस्वीर पेश करती हैं। कुपोषण के मामले में गुजरात की स्थिति पिछड़े कहे जाने वाले राज्यों से बेहतर नहीं है, यह बात पहले भी कई अध्ययनों में आ चुकी है। मोदी के मुख्यमंत्री बनने के पहले से गुजरात उद्योग और व्यापार में अग्रणी रहा है। इसलिए एक विशेष अर्थ में उसकी अग्रगामिता हमेशा रही और आगे भी रहेगी। पर जिन सामाजिक लक्ष्यों की कसौटियों पर सुशासन को परखा जाना चाहिए, वहां गुजरात की तस्वीर मायूस करने वाली क्यों है!
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