जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर विधेयक कर-प्रणाली को बदलने का शायद अब तक का सबसे महत्त्वाकांक्षी कदम है। यों इस दिशा में पहल यूपीए सरकार के समय ही हो गई थी। लेकिन बरसों की कवायद के बाद भी जीएसटी को कानूनी जामा नहीं पहनाया जा सका है। मोदी सरकार ने तय किया हुआ है कि जीएसटी को अगले साल एक अप्रैल से लागू कर दिया जाएगा।
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संबंधित विधेयक भी बीते शुक्रवार को संसद में पेश कर दिया। लेकिन विपक्षी दलों के विरोध को देखते हुए प्रस्तावित कर-व्यवस्था को निर्धारित समय से लागू करने के सरकार के इरादे पर फिलहाल सवालिया निशान लग गया है। यह दिलचस्प है कि लोकसभा में विरोध की अगुआई कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने की, जबकि जीएसटी का खाका मनमोहन सिंह सरकार ने ही बनाया था। इस विरोध में तृणमूल कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, वामदल, राष्ट्रवादी कांग्रेस, बीजू जनता दल भी शामिल हो गए। अलबत्ता अन्नाद्रमुक और बीजद के सदस्यों ने कांग्रेस और राकांपा की तरह सदन का बहिष्कार नहीं किया। दरअसल, विपक्ष के विरोध के पीछे कोई बुनियादी कारण नहीं है। विपक्षी सांसदों की मांग थी कि विधेयक को स्थायी संसदीय समिति को सौंपा जाए।
कांग्रेस का कहना है कि विधेयक का स्वरूप अब वही नहीं है, जो यूपीए सरकार ने तैयार किया था; उसमें काफी फेरबदल कर दिया गया है, जिसकी वजह से विधेयक के मसविदे का अध्ययन करने के लिए सदस्यों को पर्याप्त समय दिया जाए। इस आरोप में तो कोई दम नहीं दिखता कि विधेयक हड़बड़ी में पेश किया गया है, क्योंकि जीएसटी पर बारह वर्षों से बहस चलती रही है और इस दौरान राज्यों की आशंकाएं दूर करने के लिए कई दौर की बातचीत चली। अनेक संशोधन राज्यों की मांगों को ध्यान में रख कर ही किए गए।
जीएसटी में केंद्रीय एवं राज्य उत्पाद कर, वैट, सेवा कर आदि अनेक करों को समाहित करने की व्यवस्था है, इससे अभी तक चली आ रही कर-व्यवस्था पूरी तरह एकीकृत हो जाएगी। यह उम्मीद जताई गई है कि जीएसटी से कारोबार में सहूलियत होगी और जीडीपी में इजाफा होगा। लेकिन राज्यों को यह अंदेशा रहा है कि जीएसटी के लागू होने पर उनके राजस्व में कमी आएगी। इस आशंका को दूर करने के लिए केंद्र सरकार को नुकसान की भरपाई के प्रावधान विधेयक में जोड़ने पड़े और जीएसटी परिषद में राज्यों की दो तिहाई भागीदारी तय कर उन्हें निर्णय प्रक्रिया में भी अहम भूमिका दी गई।
राजस्व के नुकसान की स्थिति में प्रस्ताव है कि राज्यों को पहले तीन साल में सौ फीसद मुआवजा दिया जाएगा, चौथे साल में पचहत्तर फीसद और पांचवें साल में पचास फीसद। राज्यों की मांग के ही मद््देनजर शराब को जीएसटी से पूरी तरह बाहर रखा गया है और पेट्रोलियम पदार्थों को बाद में शामिल किया जाएगा, क्योंकि ये दो उत्पाद राज्यों के राजस्व के बड़े स्रोत हैं। फिर भी राज्यों को कोई शिकायत होगी, तो जीएसटी परिषद में अपनी दो तिहाईभागीदारी के बल पर उसे दूर करने का दबाव वे बना सकते हैं।
साफ है कि राज्यों की आपत्तियों से जुड़ी समस्याएं काफी हद तक सुलझा ली गई हैं। यह इससे भी जाहिर है कि विपक्षी दलों ने एतराज मुख्य रूप से विधेयक पारित कराने की प्रक्रिया को लेकर उठाया। अगर विपक्षी सदस्य चाहते हैं कि विधेयक को संसदीय समिति को सौंपा जाए, तो समिति के विचार के लिए समय-सीमा तय कर गतिरोध दूर किया जा सकता है। यों भी यह संविधान संशोधन विधेयक है जिसे पारित कराने के लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी, ओौर विपक्ष के सहयोग के बिना इसे संसद की मंजूरी दिला पाना संभव नहीं लगता।
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