जनमत संग्रह के नतीजे ने बता दिया कि यूनान के अधिकतर लोग क्या चाहते हैं। पर इससे यूनान का संकट कम नहीं हुआ है, बल्कि और पेचीदा हो गया दिखता है। जनमत संग्रह इस मुद्दे पर हुआ कि क्या यूनान को बेलआउट यानी बचाव-पैकेज के साथ लगाई जाने वाली शर्तें मान लेनी चाहिए? साढ़े बासठ फीसद लोगों ने वोट डाले। इकसठ फीसद से कुछ अधिक लोगों ने शर्तों के प्रति विरोध जताया है। यह कोई हैरत की बात नहीं है। यूनान के लोग बरसों से बाहरी कर्ज के साथ थोपी गई शर्तों का दंश झेलते रहे हैं। वे जानते हैं कि सरकारी खर्चों में तमाम तरह की कटौती की बात मान लेने का उन पर क्या असर पड़ता।

जनमत संग्रह का नतीजा प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रास और सत्तारूढ़ सिरीजा पार्टी के रुख के अनुरूप ही आया है। वामपंथी रुझान की सिरीजा पार्टी इस साल जनवरी में इसी वादे के साथ सत्ता में आई कि वह नई कटौतियां मंजूर नहीं करेगी। पर जनमत संग्रह के परिणाम ने यूनान और साथ ही यूरोपीय संघ को नए सवालों के रूबरू कर दिया है। तीस जून तक यूनान को अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कर्ज की अदायगी करनी थी, जिसमें वह नाकाम रहा। प्रस्तावित कर्ज के साथ संभावित शर्तें न मानने से यूनान दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। उसे यूरोजोन से बाहर होना पड़ सकता है।

दूसरी ओर, यूरोपीय संघ के सामने उलझन यह है कि अगर यूनान यूरोजोन से बाहर होता है तो यूरो की मजबूती को लेकर गलत संदेश जाएगा। अगर यूनान को शर्त-मुक्त बचाव पैकेज दिया जाए, तो वित्तीय मुश्किलों से जूझ रहे पुर्तगाल, स्पेन, इटली जैसे देश भी देर-सबेर इसी सहूलियत की मांग कर सकते हैं। यूनान पर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अलावा केंद्रीय यूरोपीय बैंक और उन्नीस सरकारों वाले यूरोपीय आयोग का भी भारी कर्ज है। बड़े कर्जदाताओं में फ्रांस और जर्मनी ने अभी तक काफी कठोर रुख अख्तियार कर रखा है। पर जनमत संग्रह के नतीजे आने के बाद इस बात के भी संकेत हैं कि शायद यूनान को राहत का कोई रास्ता मिल जाए।

यूनान के वित्तमंत्री ने इस्तीफा दे दिया है। माना जा रहा है कि अपने वित्तमंत्री को हटाने के पीछे सिप्रास सरकार का इरादा यूरोपीय संघ के नेताओं से नए सिरे से बातचीत की गुंजाइश पैदा करना है। दूसरी तरफ रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने यूनान को मदद की पेशकश की है। और अब अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने भी कहा है कि अगर यूनान कहे तो वह मदद के लिए तैयार है। फिर आइएमएफ ने कर्ज अदायगी की समय-सीमा पर इतना जोर क्यों दिया? बहरहाल, अगर यूनान को राहत मिल भी जाती है, तो वह फौरी ही साबित होगी, क्योंकि कर्जे उसके लिए दुश्चक्र ही साबित हुए हैं।

नए कर्ज की राशि पुराने कर्जों की किस्तें चुकाने में ही चली जाती है; यूनान की अर्थव्यवस्था को संभालने या सुधारने में उसका उपयोग नहीं हो पाता है। विडंबना यह है कि फ्रांस और जर्मनी जैसे यूरोप के जो देश सख्त रवैया अपनाए हुए हैं वही अपने फौजी साज-सामान खरीदने का दबाव भी यूनान पर बनाए रखते हैं। यूनान के संकट की एक वजह उसका अत्यधिक रक्षा-व्यय भी है। नाटो के सदस्य देशों में ब्रिटेन और अमेरिका के बाद अपने जीडीपी के अनुपात में सबसे अधिक रक्षा-खर्च यूनान का ही है। पिछली सरकारों के भ्रष्टाचार और 2004 के ओलंपिक की मेजबानी में किए गए अनाप-शनाप खर्चों ने भी यूनान की मुसीबत बढ़ाई है। संकट से बाहर निकलने की खातिर लिए गए कर्ज और बड़े संकट का सबब बने हैं। इस दुर्गति में जहां यूनान के लिए कुछ सबक निहित हैं, वहीं अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं समेत बाकी दुनिया के लिए भी।

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