प्रधानमंत्री ने देर से ही सही, बेमौसम की बारिश और ओलावृष्टि से बड़े पैमाने पर हुई फसलों की बर्बादी के मद्देनजर किसानों के लिए मुआवजे का एलान किया है। बुधवार को उन्होंने कहा कि अब तैंतीस फीसद फसल की बर्बादी पर भी मुआवजा दिया जाएगा। जबकि पहले पचास फीसद नुकसान पर दिया जाता था। इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने बैंकों से कहा है कि वे किसानों को दिए गए कर्ज का पुनर्गठन करें। बीमा कंपनियों से भी किसानों के दावे फौरन निपटाने को कहा गया है। यही नहीं, सरकार ने इस बात के लिए भी अपनी पीठ थपथपाई है कि उसने मुआवजे की राशि में पचास फीसद की बढ़ोतरी कर दी है। लेकिन राहत के इस कदम की सीमाएं उजागर हैं।
मुआवजे की राशि में वृद्धि भले कर दी गई हो, पर सरकार ने नुकसान के पूर्व के आकलन को घटा दिया है। पहले 1.8 करोड़ हेक्टेयर में नुकसान का अनुमान लगाया गया था, जबकि इसे घटा कर 1.6 करोड़ हेक्टेयर कर दिया गया है। नुकसान के इस अनुमान में और भी कमी कर दी जाए, तो हैरत की बात नहीं होगी। दूसरी बात यह है कि क्या मुआवजा इस मायने में पर्याप्त साबित होगा कि किसानों को हुए नुकसान की भरपाई हो सके और साथ ही वे अगली फसल की लागत का इंतजाम कर पाएं?
किसान खेती के घाटे में होने का दंश तब भी झेलते रहते हैं जब मौसम का ऐसा कोप नहीं होता। पैदावार अच्छी होने पर भी अक्सर वाजिब दाम न मिल पाने से वे खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में वादा किया था कि उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेगी; किसानों को उनकी उपज की कुल लागत पर पचास फीसद का लाभ दिलाना सुनिश्चित करेगी। लेकिन अब वह अपने वादे से मुकर गई है। सर्वोच्च न्यायालय में इस मसले पर दाखिल याचिका पर सुनवाई के दौरान सरकार ने दलील दी कि यह व्यावहारिक नहीं है।
मोदी सरकार बनने के बाद गेहूं और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज पचास रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की गई, जो कि सिर्फ करीब तीन फीसद की वृद्धि है। यही नहीं, किसानों को अपना बकाया पाने के लिए भी कई बार आंदोलन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। गन्ने का कुल बकाया इक्कीस हजार करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है। किसानों को राहत देने का सरकारों के पास एक प्रचलित नुस्खा यह है कि कृषि ऋण की उपलब्धता बढ़ा दी जाए। लेकिन जहां खेती पुसाने लायक न हो, वहां कर्ज आखिरकार मर्ज ही साबित होता है। इसलिए सबसे बुनियादी मसला यह है कि खेती को कैसे निर्वाह लायक बनाया जाए।
यह किसानों की आर्थिक सुरक्षा के साथ-साथ देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी जरूरी है। पर कृषि के लिए न्यायसंगत मूल्य निर्धारण और किसान आय आयोग बनाने के तकाजे से सरकारें कन्नी काटती रही हैं। हाल में हुई फसलों की तबाही ने जलवायु परिवर्तन के मद््देनजर भी कृषि की हालत पर सोचने को विवश किया है। रबी की फसल तो चौपट हुई ही है, कई विशेषज्ञों ने खरीफ को लेकर भी आशंकाएं जताई हैं। दरअसल, मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव का सिलसिला बढ़ रहा है और इसकी पहली मार किसानों पर पड़ रही है। मगर इसका असर पूरी अर्थव्यवस्था और अन्य तबकों पर भी पड़ेगा। लिहाजा, जलवायु संकट के मद््देनजर फसल-चक्र और खेती के तौर-तरीकों पर भी नए सिरे से सोचना होगा। इसके लिए तात्कालिक और दूरगामी, दोनों तरह की योजना बनानी होगी। जबकि इस पर अभी कोई सुगबुगाहट तक नहीं दिखती।
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