हाल में बेमौसम की बारिश से अनेक राज्यों में बड़े पैमाने पर फसलों की तबाही हुई है। देर से ही सही, प्रधानमंत्री ने किसानों के लिए मुआवजे की घोषणा की। लेकिन इसके साथ ही केंद्र सरकार ने नुकसान का आकलन घटा दिया। पर उत्तर प्रदेश सरकार ने तो मुआवजे के नाम पर जो किया वह किसानों के साथ क्रूर मजाक ही कहा जाएगा। कहीं किसी को पचहत्तर रुपए का चेक मिला तो किसी को सौ रुपए का। राज्य में कई किसान फसल तबाह होने पर खुदकुशी कर चुके हैं।
पहले तो राज्य सरकार खुदकुशी की घटनाओं से ही इनकार करती रही। पर हकीकत को झुठलाना संभव नहीं हुआ और खुदकुशी के तथ्य मानने पड़े। फिर भी किसानों के प्रति उसकी बेरुखी जारी रही। पचास से सौ रुपए की नगण्य राहत-राशि देना उनके जले पर नमक छिड़कना है। इस पर सवाल उठे तो राज्य सरकार बचाव की मुद्रा में आ गई और फिर एलान किया कि किसी को भी डेढ़ हजार रुपए से कम की राहत-राशि नहीं दी जाएगी। पर यह भी मामूली है, मनरेगा की महीने भर की मजदूरी के बराबर भी नहीं है। इसका निर्धारण किस आधार पर किया गया? इसके लिए क्या मानक अपनाए गए?
विडंबना यह है कि उत्तर प्रदेश इस मामले में अकेला नहीं है। हरियाणा सरकार ने भी कई किसानों को दो सौ रुपए के चेक मुआवजे के तौर पर दिए हैं। जब इसकी आलोचना हुई तो हरियाणा सरकार ने सफाई दी कि यह मुआवजा तो पिछले साल का है और पिछली सरकार के मापदंडों से तय हुआ। विचित्र है कि इसी मामले में मनोहरलाल खट््टर सरकार को हुड्डा सरकार का अनुसरण करना ठीक लगा! हुड्डा सरकार ने पिछले साल फरवरी में, ओलावृष्टि से फसलों को हुए नुकसान का विचित्र मुआवजा किसानों को दिया था, किसी को चालीस रुपए, किसी को पचास रुपए। यहां तक कि बीस रुपए और दो-चार रुपए तक के भी चेक दिए गए थे।
भाजपा ने इसकी जमकर निंदा की थी। पर दो सौ रुपए का मुआवजा देते हुए खट्टर सरकार को कुछ गलत नहीं लगा। मध्यप्रदेश के एक मंत्री ने पिछले दिनों कहा कि किसान फसल तबाह होने से नहीं, निजी कारणों से खुदकुशी कर रहे हैं। यह हमारे राजनीतिक दलों का हाल है, जो किसानों के लिए आंसू बहाने की होड़ में कभी पीछे नहीं रहते। सैफई के जलसे में करोड़ों रुपए फूंक देने में समाजवादी पार्टी को कोई हिचक नहीं होती। मुलायम सिंह को उनकी पार्टी ‘धरतीपुत्र’ कहती आई है। पर उनका पचहत्तरवां जन्मदिन शाही ठाठ-बाट से मनाया गया। दूसरी ओर, सपा सरकार किसानों के लिए राहत-राशि इस तरह से तय करती है मानो वे भिखमंगे हों।
किसानों की मुसीबत का मखौल उड़ाती राहत-राशि के चेक बांटने के लिए कई जगह राज्य के राजस्व मंत्री गए, सरकारी लाव-लश्कर और समर्थकों के हुजूम के साथ। आखिर वे किस चीज का श्रेय लेना चाहते थे? कितना सारा खर्च खैरात बांटने के इस दिखावे पर हुआ होगा? यह मुआवजा-वितरण था या सामंती प्रदर्शन? यों कृषि एक व्यापक संकट का शिकार है। खेती घाटे का धंधा बनती गई है। पैदावार अच्छी होने पर भी कई बार वाजिब दाम न मिलने से किसान खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। कीट-प्रकोप या मौसम की मार से फसल बर्बाद हो जाए, तब तो वे कहीं के नहीं रहते। क्या इस त्रासदी के समय भी वे संभलने लायक सहारे की उम्मीद नहीं कर सकते?
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