जनता परिवार यानी कभी जनता दल में साथ रहे मगर बाद में कई दलों में बिखर गए नेताओं ने करीब सवा महीने पहले विलय कर नया दल बनाने की घोषणा की थी। यह भी कहा गया कि प्रस्तावित पार्टी के अध्यक्ष का नाम तय हो गया है, मुलायम सिंह यादव इसके अध्यक्ष होंगे। पार्टी के नाम, झंडे, निशान आदि के बारे में भी जल्द सहमति बन जाएगी। लेकिन विलय की प्रक्रिया पूरी होना तो दूर, उलटे जनता परिवार की एकता में दरार दिखने लगी है। हालांकि विलय का इरादा जता चुके नेताओं में से किसी ने एकता की जरूरत से इनकार नहीं किया है, पर उनके अलग-अलग रुख के चलते नई पार्टी बनने की संभावना पर सवालिया निशान लग गया है। विलय में आने वाली अड़चनों का अंदाजा उन्हें न रहा हो, यह नहीं कहा जा सकता। ये कठिनाइयां किस तरह से दूर की जाएंगी, अगर इस बारे में उनमें स्पष्ट सहमति नहीं बन पाई थी, तो विलय का एलान करने की जल्दबाजी क्यों की गई? इससे उनकी विश्वसनीयता पर ही आंच आई है।

जनता परिवार कहे जाने वाले नेताओं की वैचारिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि समान रही है। लंबे समय से वे अलग-अलग दल चलाते रहे हैं, तो इसका कारण उनके अपने क्षेत्रीय आधार के अलावा अहं भी रहा है। इसलिए जब विलय की घोषणा हुई थी, तभी से उसके अमली रूप लेने पर संदेह जताने वालों की कमी नहीं रही है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी की बढ़ी हुई ताकत और खासकर बिहार में विधानसभा चुनाव की चुनौती को देखते हुए यह भी लग रहा था कि विलय का एलान मूर्त रूप ले सकता है। मगर लालू प्रसाद यादव विलय के बजाय महा गठबंधन बनाने के ज्यादा इच्छुक दिखते हैं, जिसमें कांग्रेस और वाम दल भी शामिल हों। उन्होंने जीतनराम मांझी को भी न्योता दे डाला, जो नीतीश कुमार के धुर विरोधी बन चुके हैं।

यह अलग बात है कि इसमें मांझी की कोई दिलचस्पी नहीं दिखती। इस तरह का महा गठबंधन तो नई पार्टी बनाने के बाद भी हो सकता है। फिर लालू प्रसाद की नई पेशकश का राज क्या है? दरअसल, सीटों का बंटवारा आड़े आ रहा होगा। लोकसभा चुनाव में बिहार में राजद और जनता दल (एकी), दोनों को बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी थी, मगर जद (एकी) को ज्यादा। इस आधार पर लालू अपने लोगों के लिए ज्यादा सीटें चाहते होंगे। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मान कर चुनाव लड़ने का जद (एकी) का आग्रह भी उन्हें शायद रास न आए।

लेकिन राजद ही नहीं, समाजवादी पार्टी भी विलय को लेकर उत्साहित नहीं दिखती। सपा के अनेक नेताओं को यह अंदेशा है कि विलय कर नया दल बना तो उनकी अहमियत घट जाएगी। उन्हें यह भी लगता होगा कि विलय से उत्तर प्रदेश में कोई खास फायदा नहीं होगा, क्योंकि सपा को छोड़ कर जनता परिवार के किसी और दल का इस राज्य में आधार नहीं है। बिहार में नीतीश और लालू के हाथ मिलाने का असर क्या हो सकता है इसकी एक बानगी उपचुनावों में दिख चुकी है, जब वे दस में से छह सीटें सम्मिलित रूप से जीतने में कामयाब रहे थे। अलग-अलग रह कर भाजपा से पार पाना उनके लिए आसान नहीं होगा। अगर बिहार की बाजी वे चूक गए, तो उत्तर प्रदेश में भी भाजपा का हौसला बढ़ा हुआ होगा, और इसका सबसे ज्यादा नुकसान मुलायम सिंह को होगा। फिर भी जनता परिवार के ये नेता विलय को लेकर संजीदा नहीं हैं, तो इससे यही जाहिर होता है कि न तो वे चुनावी मुकाबले को लेकर पर्याप्त गंभीर हैं न केंद्र में विपक्ष की प्रभावी भूमिका को लेकर।

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