मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का इक्कीसवां अधिवेशन नेतृत्व परिवर्तन के फैसले के साथ संपन्न हुआ। प्रकाश करात के उत्तराधिकारी के तौर पर दो दावेदार थे, सीताराम येचुरी और एस रामचंद्रन पिल्लई। इसलिए नया महासचिव कौन होगा, इसे लेकर अंतिम क्षणों तक अनिश्चितता बनी रही। आखिकार सर्वसम्मति से येचुरी को चुना गया। पार्टी के नए महासचिव के तौर पर इससे स्वाभाविक और बेहतर नाम दूसरा नहीं हो सकता था। दस साल पहले जब प्रकाश करात माकपा के महासचिव चुने गए थे तो वह पार्टी के नेतृत्व में पीढ़ीगत बदलाव भी था। इस बार वैसा नहीं है। करात और येचुरी एक ही पीढ़ी हैं। पर येचुरी में कई ऐसी खूबियां हैं जिनकी इस वक्त माकपा को बेहद जरूरत है। पार्टी के भीतर तो उनकी स्वीकार्यता रही है, राज्यसभा सदस्य के रूप में संसदीय राजनीति में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज के कराने के साथ-साथ अन्य दलों और संगठनों से संवाद के लिए भी वे सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति हैं। इक्यानबे सदस्यीय केंद्रीय समिति और सोलह सदस्यीय पोलित ब्यूरो में भी कई नए चेहरे शामिल किए गए हैं। येचुरी पर नई जिम्मेदारी ऐसे समय आई है जब माकपा अपने इतिहास के शायद सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। अपने सघन प्रभाव वाले तीन राज्यों में केवल त्रिपुरा में उसकी सरकार है।
बंगाल का उसका गढ़ ढह चुका है और केरल में वह कुछ बरसों से कलह का शिकार रही है। बंगाल में भाजपा का फैलाव उसके लिए एक बेहद चिंताजनक मामला है। राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी हालत ठीक नहीं है। लोकसभा में उसके केवल नौ सदस्य हैं। लिहाजा, माकपा के नए नेतृत्व के सामने कई चुनौतियां हैं। सबसे पहली चुनौती बंगाल और केरल में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की है, केरल की इकाई को आपसी झगड़ों से उबारना है। ताजा अधिवेशन में पार्टी ने यह स्वीकार किया कि वह युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रही है। इसके चलते नई भर्ती कर पाना उसके लिए बहुत मुश्किल हो गया है। यही नहीं, खासकर बंगाल में बड़ी संख्या में उसके सदस्य पार्टी छोड़ चुके हैं। एक बड़ा काम इस सांगठनिक हालत को दुरुस्त करना है। दूसरा प्रमुख काम अन्य राज्यों में सांगठनिक विस्तार का है। येचुरी का कई भाषाएं जानना इसमें मददगार साबित हो सकता है। माकपा का श्रमिक संगठन मजबूत है, पर उसे अन्य तबकों में भी अपनी पहुंच बनानी होगी। येचुरी ने संकेत दिया है कि भाकपा के साथ विलय की प्रक्रिया चलाई जाएगी। भाकपा इसके लिए पहले से इच्छुक रही है। समान विचारधारा और समान नीतियों वाले दलों के अलग-अलग रहने का कोई औचित्य नहीं है, जबकि वे व्यक्तिवादी नहीं बल्कि सामूहिक नेतृत्व के ढर्रे पर चल रहे हैं।
कम्युनिस्ट पार्टियों में माकपा ही सबसे बड़ी पार्टी रही है। इसलिए वाम एकता की धुरी भी वही हो सकती है। बंगाल और केरल में उसने यह दिखाया भी है। पर वामपंथी एकता को अधिक व्यापक स्वरूप देने और नई ऊर्जा से लैस करने की जरूरत है। हरकिशन सिंह सुरजीत के जमाने में माकपा सेक्युलर मोर्चेबंदी में आगे रहती थी। हालांकि अब पार्टी की वैसी ताकत नहीं है, पर उसने कहा है कि वह नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ वाम दायरे से बाहर के सेक्युलर दलों को भी साथ लाने की कोशिश करेगी। पर इसी के साथ उसे अपने कार्यक्रमों और प्रचार के तौर-तरीकों में नवीनता लानी होगी। माकपा को यह भी सोचना होगा कि सिंगूर और नंदीग्राम जैसी गलतियां क्यों हुर्इं और वे फिर से न हों। सीताराम येचुरी ने एक बार कहा था कि समाजवाद का कोई बाहरी मॉडल भारत के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता, उसका देशज मॉडल गढ़ना होगा, उसका खाका अपने अनुभवों और अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के मद्देनजर बनाना होगा। उन्हें जरूर इस दिशा में पहल करनी चाहिए।
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