मणिपुर सरकार ने म्यांमा से आने वाले शरणार्थियों की मदद पर रोक से संबंधित आदेश को वापस लेकर एक अच्छा कदम ही उठाया है। यों भी एक लोकतांत्रिक समाज और राज में इस तरह का फरमान जारी किया जाना अपने आप में हैरान करने वाली बात थी कि संकट में पड़े लोगों की मदद नहीं की जाए। म्यांमा से किसी तरह जान बचा कर भारत की ओर भाग आए शरणार्थी जिस हालत में हैं, उनकी त्रासदी समझना कोई मुश्किल काम नहीं है।

एक अपरिचित भी अपनी सीमा में ऐसी स्थिति में पड़े लोगों की मदद करता है और यही मानवता का तकाजा है। लेकिन विडंबना यह है कि इस मसले पर न केवल सरकार ने अपनी ओर से कोई पहलकदमी नहीं की, बल्कि संवेदनहीनता दर्शाते हुए यह आदेश जारी कर दिया कि म्यांमा से भाग कर मणिपुर की सीमा में आए लोगों के लिए रहने का इंतजाम और यहां तक कि भोजन भी मुहैया नहीं कराया जा सकता है। मणिपुर सरकार के गृह विभाग में तैनात विशेष सचिव की ओर से छब्बीस मार्च को जारी निर्देश में पांच जिलों के उपायुक्तों को म्यांमा से आने वाले शरणार्थियों को भोजन और आश्रय प्रदान करने के लिए कोई शरणार्थी शिविर नहीं खोलने की बात कही गई थी।

हमारे देश की परंपरा और संस्कृति के मुताबिक जो पहचान रही है, उसमें प्रथम दृष्ट्या इस तरह का आदेश अविश्वसनीय लगता है। खासतौर पर जहां किसी प्राकृतिक आपदा या युद्ध के समय दुश्मन देशों तक में आम लोगों पर आए संकट के समय हमारे देश की ओर से बढ़-चढ़ कर मदद की गई है, वहां म्यांमा में सेना के कहर से बच कर निकलने वाले लोगों को उनके हाल पर छोड़ देना और दूसरों को भी उनकी मदद करने से मना करना एक अफसोसनाक फैसला था।

यही वजह है कि इसे लेकर अलग-अलग नागरिक समूहों और आम लोगों के बीच तीखी प्रतिक्रिया सामने आ रही थी। जब मामला तूल पकड़ने लगा तब राज्य सरकार ने यह सफाई पेश की कि इस निर्देश को ठीक से नहीं समझा गया। हालांकि अगर इसे वापस लिया गया है तो जाहिर है कि इसमें दर्ज निर्देशों का अर्थ वह नहीं है जो राज्य सरकार अपनी सफाई में पेश कर रही है।

म्यांमा में लोकतंत्र के खिलाफ सैन्य तख्तापलट के बाद जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं, यह छिपा नहीं है। इसकी आलोचना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। लेकिन इससे बेपरवाह म्यांमा की फौजी सरकार अब बर्बरता पर उतर आई है। आम नागरिकों ने जब सड़क पर उतर कर सैन्य शासन का विरोध करना शुरू कर दिया है, तब उनकी बातों पर गौर करने और लोकतंत्र की वापसी के लिए जरूरी कवायद करने के बजाय सेना पूरी संवेदनहीनता से लोगों पर गोलियों की बौछार कर रही है, जिसमें अब तक पांच सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। फौजी शासन से असहमति रखने वाले किसी भी व्यक्ति की जान वहां खतरे में है।

ऐसे में अपनी जान बचा कर भारत की ओर चले आए लोगों को मदद की जरूरत है। भारत में न केवल संस्कृति और परंपरा के लिहाज से सहायता एक सबसे अहम खासियत रही है, बल्कि सरकार का यह कर्तव्य भी है कि अगर कोई शरणार्थी के तौर पर हमारे देश में आ गया है तो वह उसके जीवन की रक्षा करे। ऐसे में यह जरूरी है कि पड़ोसी देश होने के नाते म्यांमा या उनके नागरिकों से संबंधित तकनीकी व्याख्याओं से इतर प्राथमिक तौर पर अपनी जान बचाने की भूख में हमारी सीमा में आ गए लोगों की मदद की जाए। बाकी मसले हालात सामान्य होने पर सुलझाए जा सकते हैं।