मुख्य निर्वाचन आयुक्त नसीम जैदी का सोमवार को आया सुझाव स्वागत-योग्य है। उन्होंने कहा है कि सीइसी यानी चुनाव आयोग के मुख्य आयुक्त और अन्य आयुक्तों के चयन के लिए कॉलिजियम यानी चयन मंडल होना चाहिए। यह बात पहली बार सामने नहीं आई है। पहले भी कई मुख्य चुनाव आयुक्त यह सुझाव दे चुके हैं। हाल में चुनाव सुधारों पर अपनी रपट में विधि आयोग ने भी कहा था कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए तीन सदस्यीय कॉलिजियम बनाया जाना चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष या विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश शामिल हों। जैदी ने दरअसल, विधि आयोग की सिफारिशों से जुड़े एक सवाल के जवाब में उसकी सलाह की तरफदारी की है।

तीन साल पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी यही राय जाहिर की थी। तब के प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर आडवाणी ने निर्वाचन आयोग के आयुक्तों और नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक के चयन के लिए कॉलिजियम प्रणाली अपनाए जाने की बात कही थी। उनकी मांग पर व्यापक सकारात्मक प्रतिक्रिया भी हुई। यूपीए सरकार चाहती तो इस दिशा में पहल कर सकती थी। लेकिन अब आडवाणी को मार्गदर्शक मानने वाली भाजपा की सरकार है, उसे उनकी मांग को अमली जामा पहनाने में हिचक क्यों होनी चाहिए?

मौजूदा व्यवस्था के तहत सीइसी सहित निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह से राष्ट्रपति करते हैं। जाहिर है, इसमें प्रधानमंत्री यानी सत्तापक्ष की ही भूमिका निर्णायक होती है। हालांकि एक निष्पक्ष संस्था के तौर पर आयोग ने अपनी साख बनाए रखी है। पर किसी-किसी नियुक्ति को लेकर विवाद भी उठा, मसलन नवीन चावला के चयन को लेकर। आडवाणी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा था कि चूंकि चुनाव आयुक्तों के चयन में केवल सरकार की भूमिका है, इसलिए यह प्रक्रिया लोगों में बहुत भरोसा नहीं पैदा करती। इस तर्क में दम है। यही वजह है कि विधि आयोग से लेकर अनेक कानूनविद चुनाव आयुक्तों के चयन का अधिकार सरकार तक सीमित न रख कर चयन मंडल की वकालत करते रहे हैं। अगर कॉलिजियम प्रणाली अपनाई जाती है तो निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता में इजाफा होगा और यह ज्यादा सक्षम बनेगा। इसी मकसद से विधि आयोग ने एक और सुझाव पेश किया है और नसीम जैदी ने उससे भी सहमति जताई है।

विधि आयोग का मानना है कि चुनाव आयुक्तों को हटाने की प्रक्रिया सीइसी के समान बनाई जाए। वर्तमान प्रावधानों के मुताबिक सीइसी को केवल संसद में महाभियोग के जरिए हटाया जा सकता है। लेकिन अन्य आयुक्तों को सरकार सीइसी की सिफारिश पर या उसके बिना भी हटा सकती है। तमाम अहम फैसले चुनाव आयोग के आयुक्त मिल कर करते हैं। इसलिए यह ठीक नहीं कि सीइसी को छोड़ कर अन्य आयुक्तों का बने रहना सरकार की मर्जी पर निर्भर हो। समस्या यह है कि जो भी सत्ता में होता है उसकी दिलचस्पी सरकार के दखल को कायम रखने या उसे और बढ़ाने में होती है, न कि संस्थाओं को और सक्षम बनाने में। इसीलिए न तो चुनाव सुधार की दिशा में कोई बड़ी पहल हो पाती है न राज्यपालों के चयन को निष्पक्ष बनाने में। विपक्ष में रहते हुए भाजपा को निर्वाचन आयोग में नियुक्ति की बाबत आडवाणी की मांग रास आई होगी, मगर अब वह उस पर चुप्पी साधे हुए है!

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