चंडीगढ़ के लिए अलग प्रशासक के नाम की घोषणा करने के दूसरे ही रोज यह फैसला वापस ले लिए जाने से जाहिर है कि केंद्र ने इस मामले में अकाली दल के दबाव के आगे घुटने टेक दिए। क्या अहम फैसले इसी तरह किए जाने चाहिए? गौरतलब है कि केंद्र ने राज्यसभा के पूर्व सदस्य वीपी सिंह बदनौरको पंजाब का नया राज्यपाल नियुक्त करने की घोषणा की थी। पर इसमें चंडीगढ़ का प्रभार शामिल नहीं था। फिर, चंडीगढ़ के लिए पृथक प्रशासक नियुक्त करने की घोषणा हुई, और इस रूप में केजे अल्फोंस का नाम सामने आया, जो एक समय नौकरशाह थे और सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में आ गए और भाजपा का दामन थाम लिया। दो राज्यों की राजधानी और कई तरह की समस्याओं से जूझते चंडीगढ़ को एक पूर्णकालिक प्रशासक देने का निर्णय स्वागत-योग्य कदम था।
भले चंडीगढ़ के लोग राज्यपाल के तहत चली आ रही बत्तीस साल पुरानी व्यवस्था के आदी हो चुके हों, पर अलग, पूर्णकालिक प्रशासक दिए जाने के केंद्र के फैसले ने उन्हें जरूर किसी हद तक उत्साह और उम्मीद से भरा होगा। पर उनकी खुशी क्षणभंगुर साबित हुई। एक रोज बीता नहीं कि केंद्र ने अल्फोंस का नाम वापस ले लिया, और एलान किया कि वही व्यवस्था जारी रहेगी जो 1984 से चली आ रही है। केंद्र ने चंडीगढ़ के लिए अलग प्रशासक नियुक्त करने का फैसला इसलिए वापस ले लिया कि अकाली दल इसके सख्त खिलाफ था, और विधानसभा चुनाव से छह महीने पहले अपने सहयोगी दल की नाराजगी मोल लेने से बचने में ही केंद्र सरकार ने अपनी भलाई समझी। लेकिन अगर पंजाब में राजग की सरकार न होती, क्या तब भी केंद्र का यही व्यवहार होता? चंडीगढ़ के लिए अपनी घोषणा से मुकर कर केंद्र ने कैसी मिसाल पेश की है?
दबाव में झुकना ही था तो अच्छा होता कि केंद्र ने पहले ही अकाली दल या राज्य सरकार के नेतृत्व से बात कर ली होती। लेकिन राजनीतिक दबाव में कदम पीछे खींच लेने से अच्छा संदेश नहीं गया है। चंडीगढ़ के लिए अलग प्रशासक नियुक्त करने के निर्णय का कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भी फौरन विरोध किया था। इससे बादल को लगा होगा कि अगर वे चुप रह गए तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है। इस तरह सभी दल खिलाफ थे। वजह जाहिर है। अल्फोंस की नियुक्ति को स्वीकार कर लेने का मतलब होता कि चंडीगढ़ पर पंजाब के दावे को कमजोर होने देना। पंजाब की पार्टियां इसे आसानी से कैसे मान सकती हैं? और जब चुनाव की गहमागहमी तथा एक दूसरे से भिड़ने की तैयारियां शुरू हो चुकी हों, और राजनीतिक दलों को भावनात्मक मुद््दों की तलाश हो, तब भला यह कैसे हो सकता है कि वे राज्य के हितों का औरों से ज्यादा रक्षक होने का दावा छोड़ दें!
लिहाजा, जैसे ही आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने अल्फोंस की नियुक्ति का विरोध शुरू किया, अकाली दल को लगा कि उसके विरोधियों को उसे घेरने का एक अच्छा मुद््दा मिल गया है। फिर, अकाली दल को यों भी इस बार चुनावी चुनौती से पार पाना आसान नहीं लग रहा है। लिहाजा, उसने भी केंद्र के फैसले का विरोध शुरू कर दिया और अल्फोंस की नियुक्ति रद््द घोषित होने के बाद इसका श्रेय लूटने में भी बादल सक्रिय हो गए। पर आखिर में जो हुआ वह क्या चंडीगढ़ के हित में हुआ!