भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में रहते हुए दूरदर्शन में सरकारी हस्तक्षेप को कोसते नहीं थकती थी। लेकिन अब जब वह केंद्र की सत्ता में है, उसे दूरदर्शन पर सरकार का नियंत्रण और बढ़ाने में कोई हिचक नहीं है। सूचना सेवा की अधिकारी वीणा जैन की दूरदर्शन-समाचार के महानिदेशक के तौर पर नियुक्ति का फैसला भाजपा के बदले हुए रुख का ही प्रमाण है। इस नियुक्ति के आदेश में यह भी कहा गया है कि वीणा जैन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को रिपोर्ट करेंगी। महानिदेशक के अलावा वे मंत्रालय में विशेष कार्याधिकारी की भी जिम्मेदारी संभालेंगी। इससे दूरदर्शन के समाचारों पर सीधी निगरानी और अंकुश का सरकार का इरादा ही जाहिर होता है।

दूरदर्शन को स्वायत्त बनाने की अपनी हिमायत को भाजपा अब क्यों भूल गई है, जब उसे अंजाम देने का उसके पास मौका है? उसने तो उलटी दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। पिछले साल अप्रैल में, यानी लोकसभा चुनाव होने से पहले, नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शन की तीखी आलोचना की थी, इसलिए कि उनके एक साक्षात्कार को काट-छांट कर प्रसारित किया गया था। तब ट्विटर पर की गई अपनी टिप्पणी में उन्होंने इस मामले को इमरजेंसी की याद दिलाने वाला कहा था। उस समय के प्रसार भारती प्रमुख ने तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि इस तरह के विवाद उठने की मूल वजह यह है कि इस संस्था को वास्तविक स्वायत्तता हासिल नहीं है। लेकिन अब स्वायत्तता की फिक्र किसे है? अब मोदी को दूरदर्शन की स्वायत्तता और साख की चिंता क्यों नहीं है? दूरदर्शन के रवैए को लेकर यूपीए सरकार को घेरने वाले मोदी को अब यह क्यों जरूरी लग रहा है कि दूरदर्शन को स्वायत्त बनाने के बजाय उसे सरकार की मर्जी के आगे पहले से भी ज्यादा लाचार बना दिया जाए?

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ताजा फैसले से सत्तापक्ष के लिए दूरदर्शन का राजनीतिक इस्तेमाल और बढ़ने का ही अंदेशा है। यह रुझान पिछले साल ही सामने आ गया था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के संघ की दशहरा रैली के दौरान दिए भाषण का दूरदर्शन ने सीधा प्रसारण किया था। यह पहली बार हुआ। वाजपेयी सरकार के दौरान भी संघ पर ऐसी मेहरबानी दूरदर्शन ने नहीं की थी। अब तो दूरदर्शन का प्रशासन ही इस ढंग से नियोजित किया जा रहा है कि उसमें और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के दूसरे विभागों में कोई फर्क न रहे। यह सही है कि दूरदर्शन सरकारी पैसे से चलता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि प्रसार भारती के गठन के समय सार्वजनिक प्रसारण संस्थान की जो स्वायत्तता और मर्यादाएं सोची गई थीं वे ताक पर रख दी जाएं।

सार्वजनिक प्रसारण संस्थान के तौर पर बीबीसी को लोकतांत्रिक दुनिया में आदर्श माना गया, जो वित्तीय रूप से सरकार पर निर्भर होते हुए भी सरकारी नियंत्रण से बचा रहा है। हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए? एक तरफ निजी चैनल हैं जो व्यावसायिक गणित से चलते हैं, और दूसरी तरफ वे चैनल हैं जो सरकारी भोंपू नजर आते हैं। इसलिए हैरत की बात नहीं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम फैलाव के बावजूद निष्पक्षता और सरोकारों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है।

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