महाराष्ट्र में मराठी फिल्मों को बढ़ावा देने के नाम पर भाजपा सरकार की तरफ से राज्य के सभी सिनेमाघरों के लिए की गई घोषणा को सांस्कृतिक मनमानी की एक और कड़ी कहा जा सकता है। मंगलवार को राज्य के संस्कृति मंत्री विनोद तावड़े ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि सरकार ने सभी मल्टीप्लेक्सों को प्राइम टाइम यानी शाम छह से नौ बजे के शो में अनिवार्य रूप से एक मराठी फिल्म दिखाने का निर्देश जारी किया है। किसी क्षेत्रीय भाषा के प्रोत्साहन को गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन अगर यह प्रयास सरकार की ओर से लोगों पर थोपने की शक्ल में सामने आए तो इसे संवैधानिक मूल्यों के अनुकूल नहीं कहा जाएगा।
हालांकि यह अपने तरह की पहली कोशिश नहीं है। करीब चार साल पहले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शिवसेना की धमकी के बाद मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों के मालिकों को मराठी फिल्मों के टिकटों के दाम चालीस फीसद तक घटाने पड़े थे। मगर फिर भी नतीजा यह था कि ज्यादातर सिनेमाघरों में इन फिल्मों को देखने वाले दर्शक बहुत कम आए। अव्वल तो ऐसी मनमानियों से फिल्म के दर्शक नहीं जुटाए जा सकते। दूसरे, यह दलील ही विचित्र है कि अगर सिनेमाघरों में सबसे व्यस्त समय में मराठी फिल्में चलाई जाएं तो उन्हें बढ़ावा मिलेगा। अगर किसी को मराठी फिल्में पसंद हैं तो यह तय करने का अधिकार उस व्यक्ति को है कि वह कब और कहां उसे देखे। विडंबना यह है कि संविधान के तहत मिले अधिकारों और लोकतंत्र के तकाजे के मद्देनजर कुछ लोगों ने जब महाराष्ट्र सरकार के इस मनमाने फैसले पर सवाल उठाया तो लेखिका शोभा डे के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस जारी कर दिया गया।
दरअसल, जब से भाजपा की सरकार बनी है, ऐसा लगता है कि देश भर में एक तरह की सांस्कृतिक जोर-जबर्दस्ती का माहौल बनाया जा रहा है। लोगों के खाने-पीने-पहनने की रुचियों को नियंत्रित करने से लेकर मनोरंजन तक पर जिस तरह दबाव बनाया जा रहा है, उसे अगर निजी स्वतंत्रता के हनन के तौर पर देखा जाए तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हाल में गोमांस पर जिस तरह मनमाने तरीके से पाबंदी लगाने की घोषणा की गई, उससे समाज के एक बड़े हिस्से के बीच नकारात्मक संदेश गया है। इसी तरह, विदर्भ के वर्धा, गढ़चिरोली और चंद्रपुर जिलों में शराब की बिक्री और सेवन को प्रतिबंधित कर दिया गया। इस तरह कुछ खास इलाकों में शराबबंदी लागू करने और बाकी को छोड़ देने के दोहरे मानदंड का क्या मतलब है! क्या अब सभी नागरिकों को भाजपा नेताओं की पसंद या नापसंद के हिसाब से अपनी जीवनशैली को संचालित करना पड़ेगा? निश्चित रूप से भाजपा सरकारों की ओर से ऐसे कदम अपने मतदाताओं को ध्यान में रख कर उठाए जा रहे हैं।
लेकिन सवाल है कि राष्ट्रवाद का दम भरने वाली भाजपा सरकारों की नजर में उन लोगों के लिए क्या जगह है, जो उसके समर्थक नहीं, पर देश के नागरिक हैं और संविधान के तहत उन्हें अपनी जीवनशैली, खानपान, मनोरंजन आदि के मामले में स्वतंत्रता हासिल है! भारत सांस्कृतिक बहुलता और लोकतंत्र की महान परंपरा वाला देश रहा है। मगर भाजपा के नेता इस बुनियादी पहलू की अनदेखी कर रहे हैं कि लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता बड़ी होती है, सरकार या किसी राजनीतिक पार्टी की विचारधारा या आस्था नहीं। ऐसे बेतुके फरमानों के जरिए भले उन्हें अपना वोटबैंक मजबूत करने में मदद मिल जाए, पर इस तरह समाज में फांक पैदा करने की कोशिशों को किसी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।
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