बीते शुक्रवार को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने वित्तवर्ष 2014-15 के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े जारी किए। इसके मुताबिक पिछले वित्तवर्ष में जीडीपी की दर 7.3 फीसद रही। जाहिर है, यह काफी उत्साहजनक आंकड़ा है। इसे अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरने का प्रमाण माना जा रहा है। इसे मोदी सरकार के पहले साल की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर भी देखा जाएगा। इन आंकड़ों के मुताबिक विकास दर के मामले में भारत ने चीन को भी पीछे छोड़ दिया है और वह सबसे तेज वृद्धि की अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है। इसमें दो राय नहीं कि मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने खासकर कारोबारी माहौल सुधारने के कई कदम उठाए हैं। कोयला खदानों के बेतुके आबंटन की जगह नीलामी की प्रक्रिया शुरू हुई। स्पेक्ट्रम के आबंटन में भी पारदर्शिता आई।
लालफीताशाही कम हुई है। इस सब का असर पड़ा होगा। लेकिन जीडीपी के ताजा आंकड़ों को लेकर खासकर दो सवाल उठते हैं। एक यह कि इसमें हमारी अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की भागीदारी कैसी है। क्या जीडीपी की दर संतुलित है? गौरतलब है कि 7.3 फीसद की विकास दर मुख्य रूप से सेवा और विनिर्माण क्षेत्र के बूते हासिल हुई है। सेवा क्षेत्र की विकास दर 10.7 फीसद रही तो विनिर्माण या मैन्युफैक्चरिंग की 7.9 फीसद। लेकिन कृषि, जो कि देश की आधी से ज्यादा आबादी की आजीविका का स्रोत है, उसकी विकास दर में कोई बढ़ोतरी होना तो दूर, उलटे इसमें 2.3 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है।
जीडीपी का कुल आंकड़ा ही मायने नहीं रखता, अहम मुद््दा यह भी है कि उन क्षेत्रों की हालत कैसी है जिनका आम लोगों की आय और रोजी-रोटी से ज्यादा वास्ता है। दूसरा सवाल यह है कि अगर जीडीपी के आकलन का तरीका सरकार ने नहीं बदला होता, क्या तब भी सात फीसद से ऊपर की वृद्धि दर हासिल हुई होती? गौरतलब है कि फरवरी में मोदी सरकार ने जीडीपी के आकलन के लिए आधार वर्ष बदल दिया। पहले 2004-05 को आधार वर्ष मान कर हिसाब किया जाता था। इसकी जगह 2011-12 को आधार वर्ष बनाया गया। इसका चमत्कारी परिणाम यह हुआ कि जिन वर्षों में अर्थव्यवस्था की हालत शोचनीय बताई गई थी उन वर्षों में भी उसकी तस्वीर बेहतर दिखने लगी। मसलन, 2013-14 में जीडीपी की वृद्धि दर पांच फीसद से भी नीचे आंकी गई थी और इसे पॉलिसी पैरालिसिस यानी नीतिगत पक्षाघात का नतीजा करार देने में उद्योग जगत ने और यूपीए सरकार की नाकामी बताने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन नई पद्धति के मुताबिक यानी आधार वर्ष बदले जाने के बाद 2013-14 की विकास दर 6.9 फीसद मानी गई।
यूपीए सरकार के दौरान कुछ वर्ष आठ से नौ फीसद विकास दर के रहे थे। अगर परिवर्तित विधि से आकलन हो, तो वह आंकड़ा शायद दो अंक में नजर आएगा। इसलिए हैरत की बात नहीं कि आधार वर्ष बदले जाने के बाद हासिल हुए आंकड़ों को अनेक विशेषज्ञ संदेह की नजर से देखते हैं। फरवरी में जब केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने आधार वर्ष बदलने का फैसला किया तब भी सवाल उठे थे। प्रश्न यह भी है कि विकास दर में बढ़ोतरी से कितना लाभ आम लोगों को मिल पाता है? पिछले वित्तवर्ष में सात फीसद से ज्यादा जीपीडी वृद्धि दर का आंकड़ा है और दूसरी तरफ यह कि उपभोक्ता सामान की बिक्री में कमी आई, जो कि पिछले एक दशक में सबसे बड़ी गिरावट है। खाने-पीने और रोजमर्रा की जरूरत की अन्य चीजें खरीदे बिना लोग नहीं रह सकते, मगर टीवी, फ्रिज, वाहन, मकान आदि खरीदने को तभी सोच सकते हैं जब बचत की गुंजाइश हो। सात फीसद से ज्यादा की जीडीपी वृद्धि के बरक्स टिकाऊ उपभोक्ता सामान की बिक्री-दर में गिरावट एक बड़ा विरोधाभास पेश करती है।
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