दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर मीडिया पर हमला बोला है। इस बार कहीं ज्यादा तीखे ढंग से। उन्होंने कहा है कि मीडिया ने उनकी पार्टी को खत्म करने की ‘सुपारी’ ली है। इसी के साथ उन्होंने यह भी जोड़ा है कि वे मीडिया पर ‘पब्लिक ट्रायल’ चलाएंगे। मीडिया को जनता के बीच कठघरे में खींचने की बात कहना अपनी राजनीतिक शक्ति के दंभ का प्रदर्शन ज्यादा है। उनकी शिकायत वाजिब होगी, पर उसकी सुनवाई सड़क पर बुलाई गई भीड़ के बीच नहीं हो सकती।

अगर किसी चैनल से शिकायत है तो उन्हें इसे उपयुक्त मंच पर या उपयुक्त विधिक प्रक्रिया के जरिए ही उठाना चाहिए। इसके पीछे संपूर्ण मीडिया को लांछित करना वैसा ही है जैसे हरेक राजनीतिक को भ्रष्ट कहा जाए। लेकिन इसमें केजरीवाल अकेले नहीं हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए जब विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने पत्रकारों को ‘प्रेस्टीट्यूट’ कहा था। यह भी याद कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान, जनमत सर्वेक्षणों में भारतीय जनता पार्टी की हार की संभावना दिखाए जाने पर, मीडिया को ‘बाजारू’ करार दिया था।

ऐसी भद्दी टिप्पणियों के और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। यह भी है कि जब भी इस तरह का हमला होता है, प्रतिक्रिया में मीडिया गोलबंद हो जाता है। कई बार यह भी होता है कि आरोप लगाने वाले नेता की तरफ से खेद प्रकाश या स्पष्टीकरण आ जाता है कि उनके कहने का यह आशय नहीं था, उनकी बात का गलत अर्थ लगाया गया। फिर सब कुछ पहले की तरह चलता रहता है। लेकिन इससे बात खत्म नहीं हो जाती। ऐसे प्रसंगों की बाबत पत्रकार बिरादरी को बचाव या हमलावर मुद्रा अपनाने से आगे जाकर सोचना होगा। कई बार शिकायत जायज होती है। तब उसके निवारण का संस्थागत उपाय क्या हो सकता है?

एक दफा मनमोहन सिंह ने शेयर बाजार के कृत्रिम उछाल के लिए मीडिया को खरी-खोटी सुनाई थी। पत्रकार समुदाय में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। पर अच्छी बात यह हुई कि एडिटर्स गिल्ड ने मनमोहन सिंह के आरोप की जांच के लिए अजित भट्टाचार्जी की अध्यक्षता में समिति गठित की। समिति ने पाया कि आरोप सही था। पर उस आरोप का इस तरह निपटारा तब के गिल्ड के विवेक के अलावा इस बात की जरूरत को भी रेखांकित करता है कि अगर मीडिया के व्यवहार को लेकर गंभीर आरोप हो, तो उसकी जांच और कार्रवाई की व्यवस्था होनी चाहिए।

भारतीय प्रेस परिषद ने पत्रकारों, अखबारों और समाचार एजेंसियों के लिए एक आचार संहिता बना रखी है। प्रिंट मीडिया के मद्देनजर बनाई गई इस संहिता में निहित बुनियादी सिद्धांत और मानक दूसरे माध्यमों के लिए भी उतने ही प्रासंगिक हैं। सवाल यह है कि अगर मीडिया के किसी अंग के खिलाफ दुर्भावना से काम करने या कोई और संगीन आरोप हो, तो उसकी जांच करने और अगर आरोप सही पाया जाए तो कार्रवाई की क्या व्यवस्था है?

प्रेस परिषद जांच तो कर सकती है, कई बार उसने संबंधित मीडिया संस्थान को दोषी भी ठहराया है, पर कार्रवाई के मामले में उसके हाथ बंधे हुए हैं। मीडिया की कोई और संस्था भी कार्रवाई नहीं कर सकती। लिहाजा, क्यों न ऐसा स्वायत्त पंचाट बने, जिसमें मीडिया के निष्पक्ष प्रतिनिधियों के अलावा न्यायविद भी हों और उसे पत्रकारों और राजनीतिकों से लेकर अखबार, चैनल के खिलाफ कार्रवाई करने, ज्यादा गंभीर मामलों में लाइसेंस रद्द करने के भी अधिकार हों। इससे जहां आरोपों के निपटारे का एक विधिवत तंत्र उपलब्ध होगा, वहीं मीडिया की पेशेवर विश्वसनीयता भी बढ़ेगी।

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