सर्वोच्च न्यायालय का गुरुवार को आया आदेश दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए झटका भी है और सबक भी। न्यायालय ने दिल्ली सरकार के उस सर्कुलर पर रोक लगा दी, जिसमें मंत्रिमंडल के सदस्यों समेत सरकार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने वाली खबरों के मद््देनजर मीडिया संस्थानों के खिलाफ मानहानि के मामले दायर करने की बात कही गई थी। सर्कुलर पर रोक लगाने के साथ ही अदालत ने दिल्ली सरकार से डेढ़ महीने के भीतर यह बताने को कहा है कि इस तरह का सर्कुलर क्यों जारी किया गया। अदालत के रुख से साफ है कि मीडिया को निशाने पर लेने और उसे डराने के दिल्ली सरकार के रवैए को उसने काफी गंभीरता से लिया है। लोकतंत्र में ऐसी कार्रवाई के लिए कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। यह हैरत की बात है कि ऐसा निहायत अलोकतांत्रिक कदम उस पार्टी की सरकार ने उठाया, जो पारदर्शिता और जवाबदेही का दम भरती रही है। क्या वह अपने उसूलों से भटक गई है?
केजरीवाल कुछ समय से मीडिया के खिलाफ जहर उगलते रहे हैं। हाल में बगैर कोई ठोस सबूत पेश किए उन्होंने कहा था कि मीडिया ने उनकी पार्टी को खत्म करने की ‘सुपारी’ ले रखी है। जैसे यह आरोप काफी न हो, उन्होंंने यह भी कहा कि वे मीडिया के खिलाफ ‘पब्लिक ट्रायल’ चलाएंगे, यानी उसे जनता के कठघरे में घसीटेंगे। उनका ऐसा कहना अपनी राजनीतिक शक्ति के दंभ का भी प्रदर्शन है और घोर अलोकतांत्रिक मानसिकता का भी। फिर केजरीवाल इससे भी चार कदम आगे बढ़ गए। उनकी सरकार के सूचना विभाग ने परिपत्र जारी कर कहा कि अगर किसी अधिकारी को लगता है कि किसी प्रकाशित या प्रसारित सामग्री से उसकी या सरकार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है, तो विधि विभाग की मंजूरी लेकर मानहानि का मामला दायर किया जाए। साफ है कि यह परिपत्र मीडिया का मुंह बंद करने की मंशा से प्रेरित था। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों और राजनीतिक दलों की आलोचना आम बात है। आलोचना के अधिकार के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोई-कोई आलोचना अनुचित हो सकती है, पर लोकतांत्रिक प्रणाली में यह स्वाभाविक है और उसके आधार पर कोई सामान्य निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। सारे मीडिया को किसी साजिश में शामिल बताना वैसा ही है जैसे यह कहना कि सभी नेता भ्रष्ट हैं।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि केजरीवाल मानहानि कानून के औचित्य पर सवाल उठाते रहे हैं। खुद से संबंधित एक मामले में, जिसमें वे मानहानि के आरोपी हैं, सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर उन्होंने इस कानून के दंडात्मक प्रावधानों को चुनौती दे रखी है। क्या वे चाहते हैं कि उनके और उनकी पार्टी के लिए एक कानून हो और बाकी लोगों के लिए दूसरा कानून! क्या आम आदमी की बात करने वाली पार्टी को कानून के समक्ष सबकी समानता के सिद्धांत का भी तनिक खयाल नहीं है? आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा की सत्तर में से सड़सठ सीटें देकर मतदाताओं ने जो भरोसा जताया वह मीडिया से उलझने के लिए नहीं था। उस जनादेश के पीछे साफ-सुथरी राजनीति और बेहतर दिल्ली का सपना था। दिल्ली सरकार का काम उसी एजेंडे पर आगे बढ़ना है, न कि किसी काल्पनिक षड्यंत्र का शोर मचाना। सर्वोच्च अदालत में निहित संदेश को उसने ग्रहण नहीं किया, तो उसके भटकाव का कोई अंत नहीं होगा।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta