दिल्ली के उपराज्यपाल और आम आदमी पार्टी की सरकार के बीच अधिकारों को लेकर चल रही जंग थमने का नाम नहीं ले रही। आए दिन इस टकराव के नए-नए विषय सामने आते रहते हैं। ताजा मामला दिल्ली के एसीबी यानी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के प्रमुख के पद पर हुई नियुक्ति का है। उपराज्यपाल नजीब जंग ने नौ जून को इस पद पर 1989-बैच के आइपीएस अधिकारी मुकेश कुमार मीणा की नियुक्ति की थी। बहुत-सी अन्य नियुक्तियों की तरह इस मामले में भी जंग ने दिल्ली सरकार से कोई सलाह-मशविरा करने की जरूरत नहीं समझी। मीणा को एसीबी की कमान सौंपे जाने पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सख्त एतराज जताया था। पर उनकी आपत्तियों की सुध भला उपराज्यपाल क्यों लेते, जब उन्होंने केंद्र की कृपा से यह तय कर रखा है कि दिल्ली से संबंधित सारे फैसले उन्हें ही करने हैं। लेकिन मीणा को एसीबी के प्रमुख के पद पर आए दस दिन भी नहीं बीते कि वे एक विवाद में घिर गए हैं।
एक सेवानिवृत्त इंस्पेक्टर ने, जो मीणा के मातहत काम कर चुके हैं, दिल्ली सचिवालय में अर्जी देकर आरोप लगाया है कि जब मीणा पुलिस प्रशिक्षण कॉलेज के प्रिंसिपल थे, उनके आदेश से परदों और उन्हें टिकाने के लिए लगाई जाने वाली छड़ों की खरीदारी में घपला हुआ। यह खरीदारी नियम-कायदों को ताक पर रख कर की गई थी। न संविदा निकाली गई न खरीदारी के लिए संबंधित प्रशासनिक विभाग की मंजूरी ली गई थी। खरीदारी अतार्किक कीमतों पर तो हुई ही, खरीदे गए सामान की गुणवत्ता घटिया थी। शिकायतकर्ता का यह भी दावा है कि विभागीय जांच में मीणा को दोषी पाया गया था।
अलबत्ता दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया है, यह कहते हुए कि यह मामला दस साल पुराना है और केंद्रीय गृह मंत्रालय मीणा को पहले ही क्लीन चिट दे चुका है। पर नए सिरे से लगे आरोपों के चलते यह मामला उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव का एक और मुद्दा बनता लग रहा है। दिल्ली पुलिस पूरी तरह मीणा के पीछे खड़ी है। जिस महकमे को उपराज्यपाल के कहने पर चलना हो, उसका कोई और रुख हो भी कैसे सकता है। लेकिन जो संस्था भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने के मकसद से बनी हो, उसे खुद बेदाग होना चाहिए।
मीणा पर लगे आरोपों की सच्चाई जो हो, ताजा विवाद के चलते क्या वे जिम्मेदारी का ठीक से निर्वाह कर पाएंगे? सवाल यह भी है कि एसीबी को उपराज्यपाल अपनी मर्जी से क्यों हांकना चाहते हैं? दिल्ली पुलिस के अपने मातहत होने का लाभ उठा कर उन्होंने दिल्ली सरकार को एसीबी में अपनी पसंद के अधिकारी चुनने से रोके रखा। हार कर दिल्ली सरकार ने बिहार के कुछ पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर बुलाया, तो उपराज्यपाल ने उस पर भी रोक लगा दी।
आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा वादा भ्रष्टाचार मिटाने का ही रहा है। पर एसीबी में अपनी पसंद से नियुक्तियां न कर पाने के कारण उसकी असहायता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह सही है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है। पर इसके पहले के मुख्यमंत्रियों को कभी ऐसी लाचारी अनुभव नहीं हुई होगी। यह विचित्र स्थिति है कि लोग वादे पूरे करने और जवाबदेही की उम्मीद तो दिल्ली सरकार से करें, पर कोई भी अहम निर्णय उसे न करने दिया जाए।
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