प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस सुझाव पर, कि लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए, सरकार ने गंभीरता से विचार शुरू कर दिया है। मार्च में, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस पर पहले ही चर्चा हो चुकी है। विधि मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति भी इस सुझाव के पक्ष में अपनी राय दे चुकी है। पिछले हफ्ते संसद सत्र की शुरुआत से पहले हुई सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री यह मुद््दा उठा चुके हैं। हालांकि फिलहाल यह दावा नहीं किया जा सकता कि इस पर राजनीतिक दलों के बीच आम राय बन ही जाएगी, मगर लगता है इस पर देश में गंभीरता से विचार मंथन शुरू हो गया है। आखिर यह मसला क्यों इतना बहसतलब है? दरअसल, प्रधानमंत्री का सुझाव सामने आने के पहले से यह तर्क जब-तब दिया जाता रहा है कि अगर देश में सारे चुनाव एक साथ हों, तो इससे कई लाभ होंगे। स्थिति यह है कि कोई साल ऐसा नहीं जाता जब चुनावी माहौल न रहता हो। कुछ विधानसभा चुनावों का दौर पूरा होता है, तो एक नए दौर की गहमागहमी शुरू हो जाती है।

अगर लोकसभा और सारी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों, तो पहला लाभ यह होगा कि चुनाव के खर्चों में कमी आएगी। राज्यतंत्र पर जो वित्तीय भार पड़ता है वह भी कम होगा और राजनीतिक दलों को जो अलग-अलग चुनावों के लिए बार-बार चंदा जुटाना पड़ता है वह जहमत भी कुल मिलाकर कम होगी। दूसरा लाभ राजनीतिक स्थिरता के रूप में दिखेगा। पांच साल की अवधि में, उपचुनाव को छोड़ कर, और शायद स्थानीय निकायों के चुनावों को छोड़ कर, कोई चुनाव नहीं होंगे। राजनीतिक स्थिरता के फलस्वरूप विकास-कार्यों में तेजी आएगी। प्रशासन लोक शिकायतों के निवारण पर ज्यादा ध्यान दे सकेगा। जबकि जल्दी-जल्दी चुनाव के चलते थोड़े-थोड़े समय बाद किसी न किसी राज्य में, और कई बार कुछ राज्यों में एक साथ, चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है, जिससे विकास-कार्य बाधित होते हैं। ऐसे कई देश हैं जहां केंद्रीय और प्रांतीय चुनाव साथ-साथ होते हैं। मसलन, दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन में। लेकिन समस्या यह है कि एक साथ चुनाव का सुझाव तब तक अमल में नहीं आ सकता जब तक इसके लिए देश में राजनीतिक आम सहमति नहीं बनती, क्योंकि इसके लिए संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन करना होगा और संशोधन प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से पारित कराना होगा।

विधि मंत्रालय ने इसके कानूनी पहलुओं पर सोचना शुरू कर दिया है। संवैधानिक संशोधन की शर्त के अलावा एक अहम सवाल प्रबंध का भी है। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने हों, तब भी भारी सुरक्षा अमले की जरूरत पड़ती है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल का पिछला विधानसभा चुनाव छह चरणों में कराना पड़ा था। एक साथ चुनाव कराने के सुझाव पर निर्वाचन आयोग ने कोई सैद्धांतिक असहमति तो नहीं जताई है, पर व्यावहारिक चुनौतियां जरूर गिनाई हैं। जैसे, आयोग ने बताया है कि फिर कितनी बड़ी संख्या में नई वोटिंग मशीनें खरीदनी होंगी और दूसरे इंतजाम भी काफी करने होंगे। जब कुछ राज्यों के चुनाव कराने में ही सुरक्षा बलों का टोटा महसूस होता है, तो लोकसभा और सारे राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने पर सुरक्षा संबंधी चुनौती कितनी बड़ी होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। उम्मीद की जा सकती है कि राजनीतिक आम सहमति बनेगी तो इन परेशानियों का हल भी ढूंढ़ लिया जाएगा।