आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं की स्वराज संवाद बैठक से एक बार फिर यही संकेत मिले हैं कि पार्टी टूट के कगार पर है। हालांकि बैठक में सर्वसम्मति से फैसला किया गया कि अभी नई पार्टी गठित नहीं की जाएगी, आप में आंतरिक लोकतंत्र बनाए रखने और वैकल्पिक राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष जारी रखा जाएगा। मगर आम आदमी पार्टी के प्रवक्ताओं ने जिस तरह इन बागी नेताओं के खिलाफ राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कड़े कदम उठाने का एलान किया है, उससे नहीं लगता कि उसके रुख में कोई बदलाव आया है। इस टकराव के चलते पार्टी पर से लोगों का भरोसा लगातार कमजोर होता गया है। सारा झगड़ा दरअसल अरविंद केजरीवाल के अड़ियल रुख के चलते पैदा हुआ है। उन्होंने स्वराज नामक पुस्तक लिख कर पहले ही पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की अहमियत रेखांकित कर दी थी।
यह इकलौती पार्टी है, जिसमें आपसी विवादों और शिकायतों की सुनवाई और निपटारे के लिए आंतरिक लोकपाल की व्यवस्था है। मगर पार्टी के विस्तार, संयोजक की जिम्मेदारी किसी दूसरे व्यक्ति को सौंपे जाने, दिल्ली विधानसभा चुनाव में कुछ संदिग्ध लोगों को चुनाव लड़ाने के फैसले आदि को लेकर विचार की बात उठी तो अरविंद केजरीवाल ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि पार्टी के संस्थापक सदस्यों योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से बातचीत के लिए मिलने से मना कर दिया। पार्टी के आंतरिक लोकपाल एडमिरल एल रामदास की भी नहीं सुनी। फिर इन लोगों के पार्टी में राजनीतिक फैसले करने से संबंधित तमाम अधिकार छीन लिए गए। अरविंद केजरीवाल के इस रुख के चलते मेधा पाटकर, एसपी उदय कुमार, मधु भादुड़ी, कैप्टन जीआर गोपीनाथ और अशोक अग्रवाल जैसे अनेक संजीदा लोगों ने पार्टी से किनारा कर लिया, जो वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद लेकर दूसरी अनेक आंदोलनकारी धाराओं से आए थे।
अरविंद केजरीवाल के इस रुख की चौतरफा आलोचना हो रही है, मगर अब भी वे और उनके समर्थक पार्टी को टूट से बचाने को लेकर गंभीर नहीं दिखाई दे रहे। आम आदमी पार्टी का गठन स्वच्छ राजनीतिक नेतृत्व, पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने, लोकतांत्रिक संवाद कायम करने और जनभागीदारी को प्राथमिकता देने के वादे के साथ हुआ था। इसी के चलते लोगों ने इस पर भरोसा जताया और दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक बहुमत दिया।
अब अगर अरविंद केजरीवाल की जिद की वजह से ये मकसद हाशिये पर ढकेल दिए गए जान पड़ते हैं और लोगों में निराशा नजर आने लगी है तो इसे पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जाना चाहिए। अगर समय रहते आपसी मतभेदों को दूर कर लिया गया होता तो शायद योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण आदि नेताओं को इस तरह देश भर में स्वराज संवाद की मुहिम चलाने का संकल्प लेने और नई पार्टी बनाने के विकल्प पर विचार करने की जरूरत नहीं पड़ती। बागी समूह नई पार्टी बना भी ले तो उसके लिए वह भरोसा अर्जित कर पाना आसान नहीं होगा, जो अण्णा आंदोलन के बाद गठित आम आदमी पार्टी को लेकर बना था।
अगर अरविंद केजरीवाल समूह को लगता है कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण आदि को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा कर वे असहज सवालों से बच सकेंगे या उनकी जवाबदेही पर अंगुली उठनी बंद हो जाएगी, तो यह उनका भ्रम ही कहा जाएगा। इस तरह उन पर बाकी राजनीतिक पार्टियों के रास्ते चल निकलने का जो आरोप लग रहा है, उससे भी बच पाना आसान नहीं होगा। इसलिए उम्मीद की जाती है कि आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बदले की भावना से फैसला करने के बजाय व्यावहारिक पहलुओं पर विचार किया जाएगा।
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