दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक सफलता को दो महीने भी नहीं हुए कि आम आदमी पार्टी टूट के कगार पर पहुंच गई। शनिवार को हुई राष्ट्रीय परिषद की बैठक में योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और उनके साथ ही आनंद कुमार और अजीत झा को भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर करने का फैसला हुआ, जो निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है। आम आदमी पार्टी का गठन प्रचलित राजनीति के तौर-तरीके बदलने और नई राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के ध्येय से हुआ था। कई बार इसने इसकी बानगी भी पेश की। लेकिन इतनी जल्दी घोषित उद््देश्य नेपथ्य में चले जाएंगे, कलह और निजी अहं हावी हो जाएंगे, किसी ने सोचा नहीं होगा। तमाम कार्यकर्ता चाहते थे कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र और उठाए गए अन्य सवालों पर विचार हो, साथ ही पार्टी की एकता भी बनी रहे। उन्होंने अपनी इस भावना का बार-बार इजहार भी किया। लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को राजनीतिक मामलों की समिति से पहले ही हटा दिया गया था, राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आठ के मुकाबले ग्यारह के बहुमत से। साफ था कि यह कार्यकारिणी की आम राय नहीं थी। केजरीवाल की जिद के दबाव में वह फैसला हुआ था। पीएसी के बाद अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी दोनों संस्थापक सदस्यों को हटा कर उन्हें पार्टी की सारी निर्णय-प्रक्रिया से अलग कर दिया गया।

राष्ट्रीय परिषद की बैठक में यह फैसला जिस तरह से हुआ वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मखौल ही कहा जाएगा। जिन पर पार्टी विरोधी गतिविधि का आरोप लगाया गया उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया। परिषद के कई सदस्यों का कहना था कि उन्हें बैठक में शामिल होने से रोका गया। मयंक गांधी का कहना है कि जब उन्होंने यादव और भूषण के खिलाफ कार्रवाई के प्रस्ताव पर कुछ सवाल उठाए तो उनके साथ बदसलूकी की गई। परिषद के कई और सदस्यों का भी आरोप है कि उनके साथ हाथापाई हुई। केजरीवाल आए और ललकार भरा संबोधन कर चले गए। बैठक स्थल से बाहर उनके समर्थकों की सुनियोजित भीड़ जमा थी। उनकी अनुपस्थिति में उनके विश्वासपात्र मनीष सिसोदिया ने यादव और भूषण को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकालने का प्रस्ताव पेश किया। यह बहुमत से पारित हुआ। पर सवाल है कि अगर केजरीवाल खेमा बहुमत को लेकर आश्वस्त था, तो गुप्त मतदान और बैठक की वीडियो रिकार्डिंग की बात क्यों नहीं मानी गई। यह उस पार्टी का हाल है जिसने आपसी आरोपों और विवादों को हल करने के लिए आंतरिक लोकपाल की व्यवस्था की हुई थी। लेकिन लोकपाल एडमिरल रामदास की भी नहीं सुनी गई।

आम आदमी पार्टी के उदय के पीछे अण्णा आंदोलन की पृष्ठभूमि थी। पर वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद से कई अन्य आंदोलनकारी धाराओं के लोग भी जुड़े। पर आज वे हताश महसूस कर रहे हैं। शनिवार के प्रकरण से दुखी मेधा पाटकर ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। एसपी उदयकुमार, मधु भादुड़ी, कैप्टन जीआर गोपीनाथ और अशोक अग्रवाल जैसे कई और संजीदा लोग पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं। केजरीवाल और उनके करीबी लोग इस बात से आश्वस्त महसूस कर सकते हैं कि अपनी राह के रोड़े उन्होंने दूर कर दिए हैं। पर लगता है पार्टी की साख की उन्हें तनिक चिंता नहीं है। जो मतभेद और सवाल विवाद का विषय बने, वे ऐसे नहीं थे कि सुलझाया ही न जा सकें। आपसी बातचीत से न सुलझने की सूरत में ये सारे मसले लोकपाल के हवाले करके और उनकी राय को अंतिम मान कर आगे बढ़ा जा सकता था। पर लगता है केजरीवाल ने हर हाल में योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को बाहर का रास्ता दिखाने का निश्चय कर लिया था। क्या भविष्य में भी असहमतियों से वे इसी तरह से निपटेंगे?

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