कई वर्षों से भारतीय रेलवे को विश्वस्तरीय बनाने का दम भरा जाता रहा है। इस दिशा में कुछ कदम उठाने की घोषणाएं भी हर रेल बजट में की जाती रही हैं। रेलवे का कामकाज सुधारने के मकसद से कई समितियां भी पिछली सरकारों के दौरान बनीं। पर रेलवे में बड़े बदलाव की जैसी चर्चा अभी हो रही है, पहले शायद कभी नहीं सुनी गई। इसका आधार विवेक देवरॉय समिति की रिपोर्ट है। प्रधानमंत्री ने पिछले साल सितंबर में इस समिति का गठन किया था। समिति ने मार्च में अपनी अंतरिम रिपोर्ट दी थी और अब उसने अंतिम रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी है।
समिति की कई सिफारिशें ऐसी हैं जिनसे रेलवे के मौजूदा ढांचे और कार्यप्रणाली में अपूर्व बदलाव आएगा। पर सवाल यह है कि क्या यह परिवर्तन बाजार के हितों को साधने की कवायद भर साबित होगा, या आम मुसाफिरों के लिए भी बेहतर सेवा सुनिश्चित करेगा। समिति की सिफारिशों में खासकर तीन बातें सबसे अहम हैं। एक यह कि रेलवे के पुनर्गठन के लिए अर्ध-न्यायिक प्रकृति की एक नियामक संस्था गठित हो। दूसरे, रेल बजट की परिपाटी बंद की जाए और सामाजिक उत्तरदायित्व वाले खर्च को रेलवे से अलग किया जाए। तीसरे, निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोले जाएं। इस सब के लिए समिति ने पांच साल की कार्य-योजना पेश की है। इसलिए यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि इन सिफारिशों पर जल्दी ही अमल शुरू हो जाएगा, पर इनसे यह संकेत तो मिलता ही है कि सरकार रेलवे को किस राह पर ले जाना चाहती है।
प्रस्तावित नियामक प्राधिकरण तकनीकी मानक और माल भाड़े की दरें तय करने के अलावा विवादों का निपटारा भी करेगा। वह किराए की दरों के पुनर्निर्धारण की दरें भी सुझाएगा, पर इस बारे में अंतिम फैसला रेल मंत्रालय का होगा। जाहिर है, किराए के मामले में समिति ने सरकार के लिए राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखने की गुंजाइश बनाए रखी है। सामाजिक उत्तरदायित्व वाले व्यय से रेलवे को अलग रखने का व्यावहारिक परिणाम यह होगा कि किराए के मद में राहत देने और कर्मचारियों के लिए अस्पताल, स्कूल और अन्य सुविधाओं की खातिर सरकार को अलग से सबसिडी की व्यवस्था करनी होगी और रेल बजट समाप्त किए जाने की सूरत में इसका प्रावधान आम बजट में करना होगा। प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। शायद इसीलिए समिति ने जहां अपनी अंतरिम रिपोर्ट में निजीकरण या उत्पादन इकाइयों समेत कुछ महकमों की बाबत विनिवेश का पक्ष लिया था, वहीं अंतिम रिपोर्ट में उसने सीधे निजीकरण की बात न करके यह कहा है कि रेलवे में निजी पूंजी निवेश के रास्ते खोले जाएं।
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के आश्वासन और देवरॉय समिति की रिपोर्ट में बरती गई सावधानी का मकसद रेल यूनियनों के संभावित विरोध को शांत करना है। जबकि टुकड़ों में निजीकरण की प्रक्रिया कई सालों से चल रही है। मसलन, पैलेस आॅन वील्स जैसी रेलगाड़ियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी है। स्पेशल फ्रेट ट्रेन आॅपरेटर और आॅटोमोबाइल फ्रेट ट्रेन आॅपरेटर नाम से माल ढुलाई के मामले में भी निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे पांच साल पहले ही खुल गए थे। मोदी सरकार ने कई महकमों को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है। देवरॉय समिति की सिफारिशें इस सिलसिले को और आगे बढ़ाने की तजवीज पेश करती हैं। सरकार के लिए इन सिफारिशों के पक्ष में रेल यूनियनों को राजी करना आसान नहीं होगा। निश्चय ही रेलवे को अधिक पेशेवर और कार्यकुशल बनाने की जरूरत है, पर इसकी प्राथमिकताएं तय करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक परिवहन सेवा है।
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