राष्ट्रों की तरक्की को बताने का सबसे प्रचलित मापदंड जीडीपी या विकास दर है। लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठते रहे हैं। एक तो यह कि यह किसी देश की कुल अर्थव्यवस्था की गति को तो सूचित करता है, पर इससे यह नहीं पता चलता कि आम लोगों तक उसका लाभ पहुंच रहा है या नहीं। दूसरे, जीडीपी का मापदंड केवल उत्पादन-वृद्धि के लिहाज से किसी देश की तस्वीर पेश करता है। स्वास्थ्य, रोजगार, नागरिकों की सुरक्षा आदि की कसौटियों पर कोई देश कहां खड़ा है, यह विकास दर के आंकड़े से पता नहीं चलता।
इसलिए जीडीपी के बजाय दूसरे मानकअपनाने के आग्रह शुरू हुए। इस दिशा में सबसे पहले और सबसे ठोस पहल कुछ साल पहले भूटान ने की। भूटान ने सकल उत्पादन वृद्धि के बजाय नागरिकों की खुशहाली को देश की तरक्की का पैमाना मानने की वकालत की और इस आधार पर सर्वे भी किए। इस अवधारणा को अपनाकर अब संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक जारी करता है। इसके तहत जीडीपी को राष्ट्रीय आधार पर नहीं बल्कि प्रतिव्यक्ति के हिसाब से देखा जाता है। अन्य कसौटियों में स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, सामाजिक सुरक्षा, समाज में उदारता, अपनी पसंद की जिंदगी जीने या अपनी बाबत फैसले लेने की आजादी और भ्रष्टाचार की समस्या जैसे बातें शामिल हैं।
गौरतलब है कि इस सूचकांक में शामिल एक सौ अट्ठावन देशों में भारत को एक सौ सत्रहवां स्थान हासिल हुआ है। यानी वह सूची में काफी नीचे है। यहां तक कि प्रसन्नता सूचकांक में पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे उसके पड़ोसी देश भी उससे आगे हैं। पिछले साल की तुलना में भारत छह पायदान और नीचे खिसक गया है। इस सूचकांक के कई मानक आत्मनिष्ठ हैं।
मसलन, समाज में उदारता या फैसले लेने की आजादी। लेकिन भ्रष्टाचार की समस्या और स्वस्थ जीवन प्रत्याशा जैसे मानक वस्तुनिष्ठ हैं।
सूचकांक में सबसे ऊपर स्विट्जरलैंड है। शीर्ष पांच में अन्य देश आईसलैंड, डेनमार्क, नार्वे और कनाडा हैं। इससे जाहिर है कि आर्थिक समृद्धि खुशी महसूस करने का एक प्रमुख आधार है। लेकिन यह समृद्धि तब मायने रखती है जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। जबकि भारत और चीन का जोर आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर है। लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में चौरासीवें स्थान पर है।
भारत की अधिकांश आबादी में असंतोष बढ़ रहा है। दो तिहाई आबादी खेती से ताल्लुक रखती है। पर खेती करने वाले गहरे संकट में हैं। अगर संगठित क्षेत्र के एक छोटे-से हिस्से को छोड़ दें, तो किसान ही नहीं, दूसरे तबके भी आर्थिक असुरक्षा महसूस करते हैं। फिर, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं दिनोंदिन महंगी होते जाने की वजह से भी उनमें अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा-बोध बढ़ा है। विभिन्न समुदायों के बीच सहिष्णुता और समाज में एक दूसरे को सहारा देने की भावना भी कमजोर पड़ती जा रही है।
इसलिए यह हैरत की बात नहीं कि प्रसन्नता सूचकांक के मानकों पर भारत एकदम फिसड्डी देशों की कतार में खड़ा दिखता है। हो सकता है इस सूचकांक में कुछ खामियां हो, मगर इसने जो तस्वीर पेश की है उसे मोटे तौर पर झुठलाया नहीं जा सकता। जरूरत इस बात की है कि हम जीडीपी को विकास का एकमात्र पैमाना मानने के व्यामोह से उबरें और अन्य कसौटियों पर भी प्रगति को आंकना शुरू करें।
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