प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा दोनों देशों के रिश्तों में एक नए अध्याय की शुरुआत है, इस यात्रा ने भूसीमा को लेकर लंबे समय से चली आ रही एक बड़ी पेचीदगी खत्म कर दी है। अलबत्ता इसका श्रेय मोदी को ही नहीं, विपक्ष को भी जाता है। बांग्लादेश के साथ सीमा समझौते पर आगे बढ़ना इस संबंध में संविधान संशोधन विधेयक पारित किए बगैर संभव नहीं था। विधेयक संसद के दोनों सदनों में आम सहमति से पारित हुआ, जिससे विपक्ष का सहयोग जाहिर है। मोदी की इस यात्रा का एक और खास पहलू यह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस मौके पर मौजूद थीं। वर्ष 2011 में ममता बनर्जी और भाजपा के विरोध के कारण ही यह समझौता होते-होते रह गया था। मोदी ने इस समझौते की बाबत जहां अपनी पार्टी के भीतर की नाराजगी खासकर असम इकाई के विरोध को शांत किया वहीं असम और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को भी राजी किया। पर पूर्वोत्तर के किसी मुख्यमंत्री की मौजूदगी जरूरी क्यों नहीं समझी गई?

भारत और बांग्लादेश के बीच बस्तियों और भूखंडों की अदला-बदली के प्रस्ताव पर 1974 में ही रजामंदी हो गई थी। मगर इंदिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमान के बीच बनी सहमति को मूर्त रूप लेने में इकतालीस साल लग गए। इस समझौते से दोनों मुल्कों की भूसीमा ज्यादा तर्कसंगत हुई है। उम्मीद जताई जा रही थी कि तीस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर चला आ रहा विवाद भी इसी मौके पर सुलझ जाएगा। मगर मोदी के ढाका जाने से पहले ही यह साफ हो गया था कि तीस्ता पर कोई समझौता फिलहाल नहीं हो पाएगा। जो बाईस समझौते हुए उनमें निश्चय ही सबसे महत्त्वपूर्ण सीमा समझौता है।

इसके अलावा, बांग्लादेश को दो अरब डॉलर के ऋण, तटीय नौवहन, मानव तस्करी और मादक पदार्थों की तस्करी पर रोक, अंतर्देशीय पारगमन व्यापार संधि और आवाजाही बढ़ाने की सुविधाओं से संबंधित समझौते शामिल हैं। इन समझौतों के फलस्वरूप दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ने की संभावना जगी है। पर बांग्लादेश को हमेशा इस बात की चिंता सताती रही है कि भारत से व्यापार-वृद्धि का उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा। सार्क के मुक्त व्यापार समझौते यानी साफ्टा को लेकर सबसे ज्यादा हिचकिचाहट बांग्लादेश को ही रही। मगर जब भूसीमा विवाद सुलझ गया है, सरहदी इलाकों में आपसी व्यापार बढ़ाने की तजवीज की जा सकती है, जिससे स्थानीय समुदायों को लाभ होगा। इस अवसर पर दो बस सेवाएं भी शुरू हुर्इं। एक, अगरतला-ढाका-कोलकाता, और दूसरी, गुवाहाटी-शिलांग-ढाका।

जुलाई 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की बांग्लादेश यात्रा के दौरान ढाका और कोलकाता के बीच पहली सीधी बस सेवा आरंभ हुई थी। यूपीए सरकार के समय, 2008 में ढाका और कोलकाता के बीच ‘मैत्री’ पैसेंजर ट्रेन शुरू हुई। दो नई बस सेवाएं इसी सिलसिले की ताजा कड़ी हैं। मोदी की इस यात्रा से संपर्क और आवाजाही के नए रास्ते खुले हैं, कई और के खुलने की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन बर्लिन की दीवार गिरने से इसकी तुलना करना और फिर शांति के नोबेल पुरस्कार की बात ले आना ऐसा कथन है जिसे अति उत्साह में दिखने वाली मुखरता ही कहा जाएगा। इसी तरह की एक और चूक उन्होंने बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष और उसमें भारत की भूमिका के बारे में बोलते वक्त की। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को बांग्लादेश की ओर से मिले मुक्तियुद्ध नायक सम्मान ग्रहण करने के बाद मोदी उस दौर में वाजपेयी की भूमिका बताने के साथ-साथ अपनी सक्रियता बताना नहीं भूले, पर इंदिरा गाधी के योगदान को याद करना या उसकी याद दिलाना उन्हें जरूरी नहीं लगा! यह चूक है या मोदी की आत्म-मुग्धता!

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