बरसों पहले जनतांत्रिक क्रांति के जरिए नेपाल ने राजा की सत्ता को तो विदा कर दिया, और खुद के धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होने की घोषणा भी कर दी, पर नई व्यवस्था का मुकम्मल स्वरूप कैसा हो, इसे लेकर प्रभावी राजनीतिक शक्तियों के बीच मतभेद बने रहे। इसके चलते संविधान निर्माण की समय-सीमा बार-बार बढ़ानी पड़ी है। विभिन्न दलों के बीच मतैक्य न बन पाने और खींचतान जारी रहने से नेपाल के लोगों को बार-बार मायूस होना पड़ा है। लेकिन देर से ही सही, नेपाल की प्रमुख पार्टियों के बीच देश की भावी व्यवस्था के स्वरूप को लेकर कई अहम मसलों पर सहमति बनी है। यह भारत के लिए भी संतोष की बात है, जो नेपाल में लोकतंत्र की राह प्रशस्त होने का आकांक्षी रहा है।

यों दुनिया में कहीं भी नए संविधान का निर्माण बहुत सारी जटिलताओं से भरा रहा है। पर नेपाल में यह काम और भी चुनौती भरा साबित हुआ है। इसकी वजह शायद यही होगी कि नेपाल की प्रमुख राजनीतिक ताकतों की वैचारिक पृष्ठभूमि में काफी अंतर है। नेताओं और पार्टियों के अपने-अपने अहं भी शायद आड़े आए होंगे। पिछले आठ बरस से विभिन्न दल संविधान के प्रमुख मुद््दों पर तीखी बहस करते आ रहे हैं। अच्छी बात है कि उनके बीच अब सहमति बनती दिखाई दे रही है। शायद भूकम्प से हुई तबाही ने उन्हें ज्यादा गंभीरता से सोचने को विवश किया हो।

चार प्रमुख पार्टियों यानी नेपाली कांग्रेस, नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल), यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और मधेशी मोर्चा ने तय किया है कि देश की शासन-व्यवस्था का आधार संघीय होगा। इसके तहत आठ राज्य होंगे। इन राज्यों के सीमांकन का प्रश्न सुलझाने की जिम्मेदारी संघीय आयोग को सौंपी जाएगी, वहीं राज्यों के नाम संसद तय करेगी।

इसके साथ ही इन चारों पार्टियों ने चुनाव प्रणाली को लेकर भी सहमति जताई है। इसके मुताबिक मिश्रित चुनाव व्यवस्था अपनाई जाएगी। विधायिका के साठ फीसद सदस्य सीधे जनता के द्वारा चुने जाएंगे, वहीं चालीस फीसद सदस्य आनुपातिक प्रणाली के जरिए। लेकिन अभी कई और मसले हैं जिन पर इन पार्टियों को आम राय बनाने की चुनौती से जूझना पड़ेगा। संघीय गणराज्य की व्याख्या में नजरिए के फर्क की गुंजाइश हर कहीं हो सकती है। पर इतना तय है कि यह केंद्रीकृत व्यवस्था नहीं हो सकती। इसमें राज्यों को पर्याप्त अधिकार होते हैं, यहां तक कि देश को राज्यों के संघ के रूप में भी देखा जाता है।

नेपाल की प्रमुख पार्टियों को संघीय सत्ता और राज्यों के अधिकारों के बंटवारे का प्रश्न सुलझाना है, उन्हें तय करना है कि कौन-से विषय संघ की सूची में होंगे, कौन-से राज्यों की सूची में और कौन-से समवर्ती सूची में। इसके अलावा, देश के न्यायिक ढांचे और निर्वाचन आयोग के अधिकार और चुनावी संहिता आदि के मुद्दों पर भी उन्हें विचार करना है। फिर, अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता और जिम्मेदारियों की रूपरेखा बनाने के अलावा प्रशासनिक ढांचे के पुनर्गठन के सवाल भी उनके सामने आएंगे। इनमें से कई मसलों पर पहले समितियां बन चुकी हैं, पर राजनीतिक दलों के खींचतान में उलझे रहने से इन समितियों के गठन का कोई नतीजा नहीं निकल सका। अब प्रमुख पार्टियों के बदले हुए रुझान ने नेपाल में संविधान निर्माण का काम तेजी से आगे बढ़ने और भावी व्यवस्था की तस्वीर साफ होने की उम्मीद जगाई है।

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