उनमें कभी इस बात की उकताहट नहीं देखी गई कि अपनी रचनात्मक उपस्थिति से कोई हलचल पैदा करें। किसी वैचारिक आग्रह के चलते उथल-पुथल मचाने जैसा भी कुछ करने का उनका मकसद कभी नहीं रहा। वे थिर भाव और मंथर गति से रचते रहे। अपने लिखे को छपाने में उन्हें सदा संकोच होता रहा। यही वजह है कि संचार माध्यमों के इस हाहाकारी दौर में भी उनकी रचनाएं लगभग ओट में रहीं। कमलेश मूलत: कवि थे। साठ के दशक में उन्होंने लिखना शुरू किया। तब हिंदी साहित्य में वैचारिक आग्रहों का आलोड़न-विलोड़न उफान पर था। कविता अपने नए कलेवर में आकार ले रही थी।
मगर कमलेश अपनी तरह से लिखते रहे। वे बहुपठित थे। उन्होंने संस्कृत, हिंदी, अंगरेजी और तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य का अध्ययन किया था। पर उनकी समझ साहित्य तक सीमित नहीं थी। दर्शनशास्त्र, राजनीति विज्ञान, समाज विज्ञान, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि क्षेत्रों में भी उनकी समान गति थी। पुस्तकों का जितना विशाल संग्रह उनके पास था, दिल्ली में शायद ही किसी साहित्यकार के पास हो। किसी भी विषय पर वे संदर्भ सामग्री उपलब्ध कराने को सहज तत्पर रहते थे। जितना उन्होंने पढ़ा था उसका हजारवां हिस्सा भी वे लिख कर साझा नहीं कर पाए।
दरअसल, इस तरह अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर चौंकाना या धाक जमाना उनकी फितरत नहीं थी। अपना पहला कविता संग्रह भी उन्होंने अपने प्रयास से नहीं छपवाया। अशोक वाजपेयी ने उन्नीस सौ इकहत्तर-बहत्तर में ‘पहचान’ शृंखला के अंतर्गत उनकी अड़तालीस कविताओं का संग्रह छापा था- ‘जरत्कारु’। उसके बाद करीब तीस-पैंतीस बरस का अंतराल। उनका दूसरा कविता संग्रह आया- ‘खुले में आवास’। फिर ‘बसाव’। कुल यही उनके व्यवस्थित संग्रह हैं।
कमलेशजी की कविताओं का अपना रंग है। उनमें दार्शनिक पुट है, तो देशज अनुभवों का सहज प्रवाह भी। उनकी कविताएं भाषा के स्तर पर जहां सहज प्रतीत होती हैं, वहीं बोध के स्तर पर कई बार जटिल भी। दरअसल, वे अभिधा में नहीं समझी जा सकतीं। उनके अर्थ व्यंजना में ही खुलते हैं। उनकी मूल चिंता जीवन की जटिलताओं को लेकर थी। देसीपन को बचाए रखने की जुगत उनमें हर कहीं दिखती है। ‘जरत्कारु’ की अनेक कविताएं मिथकों के जरिए अपने अर्थ खोलती हैं, तो ‘खुले में आवास’ और ‘बसाव’ की कविताएं परिवेश की पहचान के साथ।
हालांकि बाद के दिनों में उन्होंने दक्षिणपंथ को भी समझने की चेष्टा की, लेकिन उनके काव्य में किसी किस्म के राजनीतिक विचार के उभरे होने का प्रमाण नहीं मिलता। शुरू में वे राममनोहर लोहिया के प्रभाव में थे, उनके निजी सचिव के तौर पर भी काम किया। उन्होंने उनकी पत्रिका ‘जन’ के संपादन में सहयोग किया, ‘इंगित’ का संपादन किया। बरसों बाद के बाद फिर जॉर्ज फर्नांडीज के साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के संपादक हुए। आपातकाल के दौरान बड़ौदा डाइनामाइट मामले में शामिल होकर जेल गए। यह सही है कि अपने संपादन में उन्होंने समाजवादी विचार को उचित महत्त्व दिया। युवाओं की रचनात्मकता को पहचान भी दी। वे भिन्न विचारों के प्रति खुले रहते थे।
यही वजह है कि देश की तमाम भाषाओं के लेखकों, चिंतकों, राजनीतिक विश्लेषकों आदि से उनका निरंतर संपर्क और संवाद बना रहा। वे गोष्ठियों में उपस्थित होकर विचारोत्तेजक बहसों में शिरकत करते। उनका साहित्यिक अवदान इस रूप में भी था कि उन्होंने नई प्रतिभाओं को उभारा, विचारोत्तेजक मुद्दे सामने रखे और कविता में अलग तरह का मिजाज बनाने का प्रयास किया। उनके जाने से स्वाभाविक ही हिंदी का बौद्धिक समुदाय आहत हुआ है।
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