यह हैरानी की बात है कि मोदी सरकार ने बहुब्रांड खुदरा क्षेत्र में इक्यावन फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के यूपीए सरकार के फैसले को जारी रखने का इरादा जताया है। यों भाजपा उदारीकरण और एफडीआइ के मामले में कांग्रेस से कम उत्साही नहीं रही है। लेकिन पिछली सरकार के समय खुदरा कारोबार में एफडीआइ का रास्ता साफ करने का प्रस्ताव आया, तो भारतीय जनता पार्टी ने जोर-शोर से उसका विरोध किया था। तब सुषमा स्वराज ने मनमोहन सिंह सरकार के इस कदम को छोटे दुकानदारों और कारोबारियों के लिए मौत की घंटी करार दिया था। आज के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी तब संसदीय बहसों में भागीदारी करते समय और लेख लिख कर भी खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के खतरे गिनाए थे। भाजपा नेताओं की दलील होती थी कि किराना क्षेत्र के दरवाजे एफडीआइ के लिए खोल देने से इस कारोबार में लगे करोड़ों लोग अपनी आजीविका से वंचित हो जाएंगे, लघु उद्योगों पर भी बुरा असर पड़ेगा। लेकिन लगता है केंद्र की सत्ता में आने के बाद अब भाजपा अपने ही तर्कों को भूल गई है। मंगलवार को केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की तरफ से जारी की गई एकीकृत एफडीआइ नीति में खुदरा क्षेत्र में पिछली सरकार के फैसले को बरकरार रखा गया है। अगर यही करना था, तो भाजपा ने इसमें अड़ंगा क्यों लगाया था?
अपने चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने कहा कि वह सत्ता में आई तो किराना कारोबार में एफडीआइ की अनुमति नहीं देगी। लेकिन पहला साल बीतते-बीतते उसने पलटी मार ली। कहा जा रहा है कि इस मसले पर अंतिम निर्णय होना अभी बाकी है, पर सरकार क्या चाहती है इसके संकेत तो उसने दे ही दिए हैं। उसके बदले हुए रुख के पीछे क्या वजह होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। वह सोचती होगी कि इक्यावन फीसद खुदरा एफडीआइ की पहले की अनुमति को खारिज करने की घोषणा से विदेशी निवेश की बाबत प्रतिकूल संदेश जाएगा, बाहरी निवेशक हतोेत्साहित होंगे। अगर उसकी यही चिंता हो तो विपक्ष में रहते हुए भी उसका यही रुख होना चाहिए था। यह अकेला मामला नहीं है जिसमें भाजपा ने ‘यू-टर्न’ लिया है। जीएम बीजों के जमीनी परीक्षण की इजाजत देने और भूमि अधिग्रहण से लेकर भारत-बांग्लादेश सीमा समझौते तक, ऐसे अनेक मसले गिनाए जा सकते हैं जिनमें भाजपा का रुख विपक्ष में उसकी भूमिका से एकदम उलट है। अपने घोषणापत्र में उसने कहा था कि जब तक जीएम बीजों की बाबत पूरी तरह वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो जाता, और आशंकाएं दूर नहीं हो जातीं, इनके जमीनी परीक्षण की इजाजत नहीं दी जाएगी। पर उसने बिना वैसा कोई अध्ययन कराए, अनुमति दे दी।
2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून से संबंधित विधेयक संसद में आम राय से पारित हुआ था और भाजपा ने भी उसका समर्थन किया था। लेकिन सत्ता में आने के कुछ ही महीनों बाद भाजपा ने उस कानून पर पानी फेर दिया, वह भी अध्यादेश के जरिए। मनमोहन सिंह सरकार के समय भारत-बांग्लादेश सीमा समझौते पर संसद की मुहर भाजपा के ही विरोध के चलते नहीं लग पाई थी। पिछले दिनों उसी समझौते की खातिर संविधान संशोधन विधेयक मोदी सरकार ने संसद में पेश किया और उसे पारित कराने में विपक्ष का भी पूरा साथ मिला। ऐसा हो सकता है कि एक समय के बाद या बदली हुई परिस्थितियों में कोई पार्टी किसी मसले पर अपनी चली आ रही नीति पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस करे। अगर यह बात थी तो भाजपा के घोषणापत्र में उसकी स्वीकृति दिखनी चाहिए थी। वोट मांगते समय कोई और बात कहना और सत्ता में आ जाने पर उससे विपरीत रुख अपनाना नीतिगत विसंगति तो है ही, इससे राजनीतिक विश्वसनीयता का भी सवाल खड़ा होता है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta