पर्यावरणविद लंबे समय से इस बात को लेकर आगाह करते रहे हैं कि अगर जल्दी कुछ ठोस पहलकदमी नहीं हुई तो आने वाले समय में भारत में गंभीर जल-संकट का दौर शुरू सकता है। लेकिन सरकार या संबंधित महकमों की ओर से ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा, जिससे संकट से निपटने की तैयारी का आभास हो। जबकि हमारे देश में पानी की समस्या दिनोंदिन गंभीर होती जा रही है और दस साल बाद भारत व्यापक जल संकट के मुहाने पर खड़ा होगा। पानी के मसले पर काम करने वाली प्रमुख परामर्श कंपनी ईए वाटर के अध्ययन के मुताबिक भारत में पानी की मांग सभी मौजूदा स्रोतों से होने वाली आपूर्ति के मुकाबले काफी ज्यादा हो जाने की आशंका है। अगर यही स्थिति बनी रही तो 2025 तक भारत गंभीर जल संकट वाला देश हो जाएगा।

देश में सिंचाई का लगभग सत्तर फीसद और घरेलू खपत का अस्सी फीसद हिस्सा भू-जल से पूरा होता है। वहीं भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। भारत में एक बड़े तबके के बीच आय बढ़ने, सेवा और उद्योग क्षेत्र में योगदान के चलते घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग में काफी बढ़ोतरी हो रही है। आने वाले दिनों में स्थिति और विकट होने वाली है। शायद इसी संकट को भांपते हुए कनाडा, इजराइल, जर्मनी, इटली, अमेरिका, चीन और बेल्जियम जैसे देशों की कंपनियां पानी की घरेलू जरूरत के बाजार में तेरह अरब डॉलर तक के निवेश का मौका देख रही हैं। ईए वाटर की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि उद्योग क्षेत्र को अगले तीन साल में अठारह हजार करोड़ रुपए मिलने की उम्मीद है। यानी हमारे देश में पानी की आपूर्ति और दूषित जल के प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे के विकास सहित इससे संबंधित अलग-अलग क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अवसर मुहैया कराया जाएगा। विचित्र है कि एक ओर लंबे समय से चिंता जताए जाने के बावजूद सरकार उदासीन बनी रही है, दूसरी ओर विदेशी कंपनियां इस मुश्किल से लड़ने के नाम पर कमाई के अवसर देख रही हैं।

पेयजल की लगातार बढ़ती समस्या के बरक्स बोतलबंद पानी का कारोबार बढ़ते हुए आज दस हजार करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच चुका है। मंदी के वर्ष में यह कारोबार फलता-फूलता रहा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर स्थानीय स्तर पर बोतलबंद पानी तैयार करने वाली इकाइयों तक यह भारी अनियमितता वाला व्यापार बन चुका है। ऐसे हजारों संयंत्र हैं जो बिना किसी लाइसेंस और निगरानी के चल रहे हैं और वहां मानकों का पालन करना जरूरी नहीं समझा जाता। इस मामले में हमारे यहां कोई पारदर्शिता भी नहीं दिखती।

ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि विदेशी कंपनियों के हाथों में पानी का प्रबंध जाने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र ने 2010 में स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता को नागरिक अधिकारों में शुमार किया। देश का सर्वोच्च न्यायालय भी साफ पेयजल को नागरिकों का संवैधानिक अधिकार बता चुका है। दूसरी ओर, हमारी सरकार पानी का समुचित प्रबंध करने और भू-जल के बेलगाम दोहन को लेकर जरूरी कानून बनाने और उस पर सख्ती से अमल सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से अपने हाथ खींच रही है। सवाल है कि व्यवस्था से संबंधित खामियों से निपटने के इंतजाम करने के बजाय पानी के प्रबंध से जुड़े काम निजी क्षेत्र के हवाले कर क्या सरकार खुद इसे एक आर्थिक उत्पाद बनाने की ओर बढ़ रही है!

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