भारत की आर्थिक स्थिति का सबसे बड़ा विरोधाभास पिछले हफ्ते उजागर हुआ, जब एक तरफ सामाजिक-आर्थिक जनगणना के निष्कर्ष सामने आए, और दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था के बढ़े हुए आकार की खबर आई। विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था केवल सात साल में दुगुनी हो गई है। इनमें छह साल यूपीए सरकार के थे, इसलिए इसका ज्यादातर श्रेय उसी को जाता है। इससे पहले खबर आई थी कि विकास दर के मामले में अब भारत ने चीन को भी पीछे छोड़ दिया है। पर सवाल यह है कि ऊंची विकास दर और अर्थव्यवस्था के आकार में हुई उल्लेखनीय वृद्धि के बरक्स देश के आम लोगों की हालत कैसी है?

इसका जवाब जनगणना के ताजा आंकड़े देते हैं। इनके मुताबिक ग्रामीण इलाकों के तीन चौथाई परिवारों की आमदनी पांच हजार रुपए महीने से ज्यादा नहीं है। गांवों में रहने वाले बानबे फीसद परिवारों की आय प्रतिमाह दस हजार रुपए से कम है। शहरी इलाकों के आंकड़े फिलहाल जारी नहीं किए गए हैं। पर वे जब भी सामने आएंगे, देश की कुल तस्वीर लगभग ऐसी ही उभरेगी। इसलिए कि देश की तिहत्तर फीसद आबादी का सच सामने आ चुका है। दूसरे, शहरों में भी, एक छोटा वर्ग भले संपन्नता के टापू पर रहता हो, गरीबी का दायरा बहुत बड़ा है। सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़े यह भी बताते हैं कि गांवों में रहने वाले इक्वावन फीसद परिवार अस्थायी, हाड़-तोड़ मजदूरी के सहारे जीते हैं। करीब तीस फीसद परिवार भूमिहीन मजदूर हैं। सवा तेरह फीसद परिवार एक कमरे के कच्चे मकान में रहते हैं।

वर्ष 2011 से 2013 के बीच हुई इस गणना में पहली बार जाति के पहलू को भी शामिल किया गया। अलबत्ता संसद में हुए काफी विवाद के बाद पिछली सरकार इसके लिए राजी हुई थी। लेकिन जाति के आंकड़े जारी क्यों नहीं किए गए? अगर किए जाएं तो गरीबी का यथार्थ और भी खुल कर सामने आएगा। क्या बिहार के चुनावों को ध्यान में रख कर जाति संबंधी आंकड़े जारी करने से बचा गया? सरकार का कहना है कि ऐसे आंकड़े दिए जाएं या नहीं, इस बारे में निर्णय जनसंख्या-महानिदेशक को करना है। पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बारे में फिलहाल सरकार की सहमति नहीं होगी।

उसे यह डर सता रहा होगा कि कहीं गरीबी के सामाजिक आयाम को लेकर नए राजनीतिक मुद्दे न खड़े हो जाएं। यह सही है कि निचली और पिछड़ी कही जाने वाली जातियां ज्यादा गरीब हैं। पर यह ऐसा खुला सच है जिसे दबाया या छिपाया नहीं जा सकता। अलबत्ता जिस तरह तीन चौथाई परिवारों के पांच हजार रुपए और बानबे फीसद परिवारों के दस हजार रुपए प्रतिमाह से कम पर गुजारा करने के तथ्य सामने आए हैं उससे समझा जा सकता है कि अगड़ी कही जाने वाली जातियों के भी बहुत-से परिवारों की आर्थिक हालत शोचनीय होगी।

इस स्थिति का तकाजा यह नहीं है कि नई जातिगत गोलबंदियों या आरक्षण की नई-नई मांगों को हवा दी जाए, बल्कि यह है कि ग्रामीण इलाकों की बदहाली दूर करने, वहां आय के स्रोत बढ़ाने, खेती को पुसाने लायक बनाने के लक्ष्य को हमारी आर्थिक नीतियों में प्राथमिकता दी जाए। ताजा आंकड़ों ने गरीबी के आकलन के अब तक चले आ रहे ढर्रे को निरर्थक साबित कर दिया है। अभी तक गरीब आबादी का हिसाब जिस तरह से लगाया जाता रहा है वह हकीकत बताने से ज्यादा उसे छिपाने की ही कवायद रहा है। देश में गरीबी को वास्तविकता से बहुत कम और तेजी से घटते हुए दिखाने के पीछे मंशा यही रही है कि प्रचलित आर्थिक नीतियों का औचित्य नजर आए। लेकिन सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़ों ने बता दिया है कि अब हकीकत को छिपाने का खेल नहीं चलेगा, उसे बदलने की ईमानदार इच्छाशक्ति दिखानी होगी।

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