रविवार को पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस था, और इस दिन जितनी धूमधाम से योग का समारोह हुआ, पहले कभी नहीं हुआ था। खुद प्रधानमंत्री ने औरों के साथ योग किया। राजधानी में राजपथ पर इतनी बड़ी संख्या में लोग इसमें शरीक हुए कि यह विश्व-रिकार्ड बन गया। विदेशों में भी योग के कार्यक्रम आयोजित हुए। इस सब से योग और योग दिवस को खासा प्रचार मिला। योग के प्रति अधिक से अधिक लोग आकृष्ट हों, यह अच्छी बात है। लेकिन जिस अंदाज में और जितने बड़े पैमाने पर यह सारा तामझाम हुआ, उससे कई सवाल उठते हैं। क्या इस सब का उद्देश्य योग को बढ़ावा देना ही था, या इस प्रचार अभियान के पीछे कुछ और भी मंशा रही होगी।
इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि योग महज व्यायाम या शरीर को लचीला बनाने की क्रिया भर नहीं है, मानव मन को शांति और सौहार्द की ओर उन्मुख करने की पारंपरिक कला है। लेकिन जिस ढंग से सब कुछ हुआ उसमें योग के गहन पक्ष ओझल हो गए। योग-कार्यक्रमों के उद््घाटन और लोगों को संबोधित करने के लिए सरकार के जो प्रतिनिधि विभिन्न शहरों में भेजे गए, उन सबको यम, नियम, प्रत्याहार आदि के बारे में कितना पता होगा!
एक आध्यात्मिक साधना पद्धति और दर्शन के रूप में भारत में योग की परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। बाकी विश्व भी सदियों से इससे थोड़ा-बहुत परिचित रहा है। लेकिन कुछ दशकों से पश्चिम में जिस चीज को लोकप्रियता मिली, वह योग नहीं योगा है। यानी वे इसे शरीर को लचीला और दुरुस्त रखने और तनाव से राहत दिलाने वाली कवायद के रूप में देखते हैं। योग दिवस पर इसी की यानी योगा की ही धूम रही। हालांकि व्यायाम के तौर पर भी इसकी उपयोगिता है।
बहुत सारी बीमारियां दोषपूर्ण जीवन शैली की वजह से होती हैं। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में तनाव और अन्य मानसिक रोग भी तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में योग को प्रोत्साहित करने की अहमियत जाहिर है। लेकिन सरकार जन-स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है तो सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली दूर करने में उसकी तत्परता क्यों नहीं दिखती? उलटे मौजूदा वित्तवर्ष के स्वास्थ्य बजट में बीस फीसद की कटौती कर दी गई। दूसरी बात यह है कि योग के प्रचार-प्रसार का तरीका ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह थोपा हुआ लगे। पर जिस तरह विश्व-रिकार्ड बनाया गया उसे पूरी तरह स्वैच्छिक नहीं कहा जा सकता। योग दिवस के लिए पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी गई।
प्रधानमंत्री ने कहा कि योग को सियासत से और मजहब से ऊपर उठ कर देखें। मगर भाजपा के वरिष्ठ नेता राम माधव ने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की गैरहाजिरी पर सवाल उठा कर विवाद खड़ा कर दिया। बाद में पता चला कि अंसारी को न्योता ही नहीं दिया गया था, और तब राम माधव को माफी मांगनी पड़ी। आयुषमंत्री का कहना है कि उपराष्ट्रपति को प्रोटोकॉल के तहत नहीं बुलाया गया, हालांकि उन्हें निमंत्रित करने का तरीका निकाला जा सकता था। अंसारी के राष्ट्र-प्रेम पर भाजपा के कुछ लोग पहले भी शक जाहिर कर चुके हैं।
राम माधव की टिप्पणी को अल्पसंख्यकों के खिलाफ दुर्भावना फैलाने की संघ-भाजपा की कोशिशों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। दिल्ली में भयावह वायु प्रदूषण के बारे में कई अध्ययन आए हैं। प्राणायाम की महिमा बताने वाले वायु प्रदूषण के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठा रहे हैं? जिस तरह जन-स्वास्थ्य को सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था से अलग करके नहीं देखा जा सकता, उसी तरह पर्यावरण से भी। फिर, योग चित्त-शुद्धि का भी मार्ग है। इसका विद्वेष की राजनीति से कोई मेल नहीं हो सकता। क्या इस मर्म को वे लोग अपनाएंगे जो योग को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित नजर आ रहे हैं?
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