बुधवार को डबलिन पहुंचे नरेंद्र मोदी साठ साल में आयरलैंड का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। उनसे पहले, 1956 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वहां गए थे। जाहिर है, छह दशक बाद भारत के किसी प्रधानमंत्री का आयरलैंड जाना दोनों देशों के आपसी संबंधों के लिहाज से एक ऐतिहासिक घटना है। लेकिन मोदी की इस यात्रा की जो बात चर्चा का विषय बनी वह उनकी एक टिप्पणी है।

वहां उनके स्वागत में बच्चों ने संस्कृत श्लोक गाए। इससे गदगद मोदी ने आयरलैंड में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए उन बच्चों के अध्यापकों को बधाई दी, और कहा कि उन्हें बेहद खुशी है कि यह सब आयरलैंड में हो पा रहा है; अगर ऐसा कार्यक्रम भारत में होता, तो धर्मनिरपेक्षता को लेकर सवाल खड़े हो जाते।

प्रधानमंत्री के कथन में जहां धर्मनिरपेक्षता पर कटाक्ष है, वहीं विपक्ष की परोक्ष आलोचना निहित है। इसलिए उनकी इस टिप्पणी को लेकर स्वाभाविक ही दो सवाल उठते हैं। एक तो यह कि क्या धर्मनिरपेक्षता की हमारी परिभाषा इतनी संकुचित या छुई-मुई है कि वह किसी समारोह में संस्कृत श्लोकों के गायन मात्र से खतरे में पड़ जाएगी? दूसरा सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री का अपनी विदेश यात्राओं के दौरान विपक्ष पर निशाना साधना जायज है? निश्चय ही धर्मनिरपेक्षता का यह अर्थ कतई नहीं होना चाहिए कि परंपरा और संस्कृति से कटा होना ही उसका पर्याय हो जाए।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्व धर्म समभाव में निहित है, साथ ही इसमें कि राज्य धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। धर्मनिरपेक्षता की यही अवधारणा हमारे संविधान में भी स्वीकृत है। मगर वोट की राजनीति के चक्कर में जैसे लोकतंत्र का अर्थ केवल बहुमतवाद हो गया है, उसी तरह धर्मनिरपेक्षता की भी विकृति कई बार अल्पसंख्यकवाद में दिखाई देती है। अगर प्रधानमंत्री का आशय धर्मनिरपेक्षता की बेहतर और संतुलित अवधारणा पर है, तो अच्छी बात है। लेकिन फिर उन्हें यह मसला उपयुक्त स्थान और अवसर पर उठाना चाहिए।

फिर, सवाल यह भी है कि क्या मोदी की अपनी पार्टी जैसी राजनीति करती है उससे धर्मनिरपेक्षता सही रूप में सामने आती है? मोदी निरे बौद्धिक नहीं हैं। कोई राजनेता ऐसा मसला उठाएगा तो यह सवाल भी उठे बिना नहीं रहेगा कि उसकी अपनी राजनीति कैसी है। प्रधानमंत्री विदेश में विपक्ष को आईना दिखाएं, यह न तो जरूरी है और न ही जायज। वे धर्मनिरपेक्षता पर तंज कसे बगैर भी अपनी खुशी का इजहार कर सकते थे। लेकिन ऐसा लगता है कि अपनी विदेश यात्राओं के दौरान विपक्ष को घसीटने का राजनीतिक लोभ वे छोड़ नहीं पाते हैं।

यह पहला मौका नहीं है जब विदेश में होते हुए उन्होंने विपक्ष की खिल्ली उड़ाई हो। मोदी विदेश यात्राओं के दौरान पिछली सरकारों को नाकाम बताने में संकोच नहीं करते। क्या सारे अच्छे काम उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद ही शुरू हुए हैं? प्रधानमंत्री दुनिया में कहीं भी जाएं, वे पूरे देश के प्रतिनिधि होते हैं। उनके वक्तव्य में पूरे भारत की चिंता झलकती है, समूचे भारत का हित प्रतिबिंबित होता है। लिहाजा, विदेश में उन्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए जिसके दलगत राजनीति से जुड़ने की गुंजाइश बनती हो, न उन्हें कोई ऐसी बहस छेड़ने की कोशिश करनी चाहिए जिसका देश की अंदरूनी राजनीति से वास्ता हो।

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