पूर्वांचल की एक कहावत है- जो जागे उसकी पड़िया (भैंस), जो सोवै उसका पड़वा (भैंसा)। यह जागने के बारे में एक पुरुषवादी समाज का स्त्रीवादी मुहावरा है। इसी बात को राष्ट्रीय स्तर पर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम साहब बहुत प्रेरक तरीके से कह गए हैं। उनका कहना कि- सपने वे नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं, बल्कि सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते। यह बात आजादी के संदर्भ में ज्यादा सही साबित होती है।

तमाम ऐसे लोग हैं जो झूठ के मैदान में नफरत और हिंसा के खेल को ही आजादी मानते हैं, क्योंकि इसी से वे भय फैलाते हैं और इसी से उनके लालच की पूर्ति होती है। हालांकि वे भूल जाते हैं कि लालच और हिंसा ही आजादी को गुलामी की ओर ले जाते हैं। ऐसे लोग भले चौबीस घंटे जगे हुए लगें, पर वास्तव में वे सोए हुए लोग हैं जो अन्य लोगों को भी उनके हवाले छोड़ सो जाने का आह्वान करते हैं। आजादी का दूसरा अर्थ सच्चाई के मैदान में अहिंसा और प्रेम का सांसारिक कारोबार है। यह ऐसा सपना है जिसका ताना-बाना बुनने के लिए न सिर्फ जागना पड़ता है, बल्कि अन्य लोगों को भी लगातार जगाते रहना पड़ता है।

अगर भारत की आजादी का अर्थ संसद में सत्ता और विपक्ष का घमासान, दिल्ली के जंतर मंतर या देश के अन्य सार्वजनिक स्थलों पर कुछ समूहों का धरना-प्रदर्शन, म्यांमा में घुस कर आतंकियों को मारना, सीमा पार से घुसपैठ को नाकाम करना, चौबीस घंटे के चैनलों की दिन-रात की चीखें, कांवड़ियों की बम-बम भोले की आवाजें और फेसबुक, वाट्सैप, ट्विटर पर कुछ लोगों की टिप्पणियां उनकी पसंद और नापसंद भर हैं, तो हमें मान लेना चाहिए कि अड़सठ सालों में आजादी का सपना साकार हो चुका है। इस बीच वे लोग भी निश्चिंत हो सकते हैं जो इमरजेंसी के चालीस साल पूरे होने पर फिर आपातकाल की आशंका से भयभीत हैं, क्योंकि नागरिक अधिकारों को छीनने वाला संविधान का बयालीसवां संशोधन चौवालीसवें संविधान संशोधन के माध्यम से पलटा जा चुका है।

लेकिन अगर आजादी का अर्थ न्यूनतम जातिगत, लैंगिक और आर्थिक असमानता, अधिकतम भाईचारा और सांप्रदायिक सद्भाव और आपसी संवाद है तो वह अब भी कोसों दूर है। हमारी आजादी पर विभाजन की अतृप्त आत्माएं मंडरा रही हैं और हमारी नागरिकता को उपभोक्तावाद का ग्रहण लग रहा है। भारत का विचार जिसे आजादी के सेनानियों ने अपने संघर्ष के दौरान पैदा किया था वह अपने समय आने और मूर्त रूप धारण करने का इंतजार कर रहा है। जाहिर-सी बात है कि उस विचार को पैदा करने वालों ने जो प्रणाली अपनाई उसकी तमाम कमियों ने विचार को जमीन पर उतरने नहीं दिया। उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे रहनुमा देख रहे हैं कि ‘जमीन तक आते-आते सभी नदियां सूख जा रही हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम है कि पानी कहां ठहरा हुआ है।’

देश की आजादी की उनहत्तरवीं सालगिरह पर खुश होने और सपने देखने के लिए बहुत कुछ है और जो खुश हैं उन्हें खुशी बांटने से रोकना भी नहीं चाहिए। वे मेक इन इंडिया कर रहे हैं, स्वच्छ भारत का सपना दिखा रहे हैं, स्मार्ट सिटी बना रहे हैं और वादे के मुताबिक, अपनी समझ के मुताबिक और अपनी योजना और हित के मुताबिक अच्छे दिन ला भी रहे हैं। लेकिन वे जिन्हें सच देखने की आदत है और जिनके लिए सत्य, अहिंसा और भाईचारे की खातिर निरंतर सक्रियता ही आजादी है, उन्हें उन तमाम स्थितियों को समझने और सुधारने में लगना होगा जो हमारी आजादी के लिए खतरा बन रही हैं।

आजादी के लिए जागर करने वालों और उसके लिए कदम-कदम पर पहरा देने वालों के लिए यह सवाल बहुत अहम है कि जो इंडिया 2002 में ही शाइन करने लगा था वह 2015 में क्यों अंधेरे में चला जा रहा है। संभव है यह दस साल यूपीए सरकार के शासन की नाकामी हो। या संभव है कि वह रास्ता ही गलत हो जिस पर चल कर हम रोशनी करने का शोर मचा रहे हैं और बदले में अंधेरा बढ़ रहा है। यहां सवाल राजनीतिक दलों, राजनीतिक प्रणाली और अर्थतंत्र के सवाल पर बहस करने से पहले उन स्थितियों को भी देख लेने का है जो आजादी के रखवालों को दुखी कर रही हैं और बार-बार कार्रवाई और नए रास्ते तलाशने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

हाल में आए जनगणना-2011 के आंकड़े साफ तौर पर कह रहे हैं कि गांव की आधी आबादी गरीबी की चपेट में है। जाहिर है, ये आंकड़े पिछले बीस सालों में गरीबी में क्रमश: दस प्रतिशत की कमी आने के दावे को झुठला रहे हैं। जनगणना कहती है कि गांवों के उनचास प्रतिशत घरों में गरीबी दिखाई पड़ रही है। ग्रामीण इलाकों में इक्यावन प्रतिशत घरों के लोग शारीरिक श्रम करने वाले दिहाड़ी मजदूर हैं। गांवों के बानबे प्रतिशत लोग कहते हैं कि उनकी मासिक आमदनी दस हजार रुपए से कम है। जबकि गांवों के तीन चौथाई घरों के कमाने वाले लोगों की अधिकतम मासिक आय पांच हजार या उससे भी कम है। इसका मतलब यह नहीं है कि गांवों से शहरों की ओर संपन्नता की ललक में आने वाले लोग शहरों में बहुत सुखी हैं।

शहर गांव से बेहतर जरूर हैं, लेकिन संतोषजनक नहीं हैं। इन आंकड़ों से जिन्हें यह उम्मीद लग गई हो कि शहरों में काफी तरक्की हो गई है उनके लिए शहरी गरीबी की स्थिति भी चौंकाने वाली है। शहरी भारत के ग्यारह करोड़ कुल परिवारों में से पैंतीस लाख परिवार ऐसे हैं जिनके पास आय का कोई साधन नहीं है। चालीस लाख परिवार ऐसे हैं जिनके घर का कोई न कोई सदस्य कचरा बीनता है। दूसरी तरफ नब्बे लाख परिवार ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर है।

ये आंकड़े जहां पिछले पच्चीस सालों के आर्थिक उदारीकरण की हकीकत बयान करते हैं, वहीं उस साम्यवादी प्रयोग की सच्चाई भी सामने रखते हैं जो अपने भूमि सुधार पर बहुत ज्यादा इतराता रहा है। यह विडंबनापूर्ण है कि भारत के 17.91 करोड़ ग्रामीण घरों में 10.08 करोड़ परिवार भूमिहीन हैं। पर उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि पश्चिम बंगाल, जहां का ‘आॅपरेशन बर्गा’ बहुत प्रशंसित और चर्चित रहा है, वहां भूमिहीन परिवार बहत्तर प्रतिशत हैं, और केरल, जहां साम्यवादी दलों और कांग्रेस नीत गठबंधन ने अपने भूमि सुधार को बहुत क्रांतिकारी तरीके से पेश किया वहां भूमिहीन घरों का आंकड़ा सत्तर प्रतिशत है।

उसकी तुलना में बिहार, उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की स्थिति बेहतर है जहां भूमिहीन घरों की संख्या क्रमश: पैंसठ प्रतिशत, पैंतालीस प्रतिशत और बाईस प्रतिशत है। इस बीच राजनीतिक दलों ने जातिगत आंकड़ों की मांग तेज की है। वे आंकड़े भी आने चाहिए और समाज के जातिगत विभाजन का निराकरण होना चाहिए। लेकिन हमें समाज में विपन्नता की इस वर्गीय संरचना को भूल नहीं जाना चाहिए।

आज भारत और विशेषकर उसकी आजादी के सामने अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, आदिवासियों और दलितों की आजादी का सवाल गंभीर है। उसे कैसे बचाए रखा जाए और कैसे उन्हें दूसरे तबकों की आजादी के साथ अवसरों का एक संतुलित और सम्यक अवसर मिले यह भारत की आजादी का नया विमर्श है। एक तरफ भारत के संविधान से आंख मूंद कर यह बताने और साबित करने की कोशिश चल रही है कि हजारों साल बाद देश में हिंदुओं का शासन आया है और इसे किसी भी कीमत पर जाने नहीं देना है। दूसरी तरफ आर्थिक क्रियाओं के संचालकों और संसाधनों के स्वामियों का मानना है कि उन्हें आर्थिक आजादी का सबसे अच्छा माहौल मिला है और वे परशुराम के परशु की तरह अपने उद्योगों की योजनाएं फेंक कर जितनी जमीन चाहें पा सकते हैं, जितने संसाधन चाहें इस्तेमाल कर सकते हैं।

ये दोनों परियोजनाएं नागरिकों को डरा रही हैं। वे भ्रष्ट और नाकारा होते लोकतंत्र से तो बेचैन हैं ही, उससे भी ज्यादा बेचैन उन वर्गीय और सांप्रदायिक हितों से हैं जो भारत के ‘आइडिया’ से टकरा रहे हैं और जिनकी हवा बाहर से आकर भारत में अपनी जमीन तलाश रही है। देखना है कि भारत का विचार अपनी आजादी और लोकतंत्र को बचाने के लिए इन योजनाओं के झूठ को कितना बेनकाब कर पाता है और कितना जाग कर अपने सपने को बचा पाता है।

आजादी और लोकतंत्र की जो संकल्पना अमेरिका में जनमी और फ्रांस से होती हुई यूरोपीय देशों के बाद भारत में आई आज वह नए प्रयोगों से गुजर रही है। अगर वह एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी अमेरिकी समाजों की सच्चाई को सामने रखते हुए भारत के समाज में इस प्रयोग को टिकाऊ रूप दे पाती है तो दुनिया को अपने लोकतांत्रिक भविष्य पर और भरोसा हो सकेगा।